उस महिला ने अपनी बंदूक़ मेरी तरफ़ तान दी और चिल्लाई- 'मैं तुमको गोली मार दूँगी।' मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ। वो चीख़ रही थी 'तुमने मेरे कंपाउंड में ट्रेसपास किया' (तुम बिना अनुमति मेरे हाते में आए)। मैं बार-बार माफ़ी माँग रहा था लेकिन उसका ग़ुस्सा कम नहीं हो रहा था। वो बार-बार मेरी तरफ़ अपनी बंदूक़ तान देती थी। इस बीच मेरी बेटी ने यह नज़ारा थोड़ी दूर से देखा और लगभग चीख़ते हुए बोली, ‘पापा भाग कर जल्दी से उसके गेट से बाहर आ जाओ।’ मैं तेज़ चलता हुआ गेट के बाहर भागा। इस बीच मेरा दामाद, जो व्हाइट अमेरिकन है, उसके पास पहुँच गया और उसे बताने लगा कि हम वहाँ क्यों आये थे।

जून में पुलिस द्वारा एक ब्लैक की हत्या के बाद रंगभेद के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा फूटा था। (फ़ाइल फ़ोटो)
शूटर्स बार कंपाउंड में एक महिला ने जब मुझ पर बंदूक़ तान दी और जब एक अजनबी फ़रिश्ता मिले तब उसके बीच सिर्फ़ आधे घंटे का समय होगा। लेकिन मुझे अमेरिका की व्हाइट आबादी के दो चेहरे देखने को मिल गए। एक रंगभेदी अमानवीय चेहरा और दूसरा उदार मानवीय चेहरा। अपनी अमेरिका यात्रा के थोड़े से अनुभवों से मैं कह सकता हूँ कि अमेरिका आज भी इन दो धाराओं के बीच जी रहा है।
उससे बातचीत के बाद कुछ मिनटों में वो अपनी कार में वापस चली गयी। उसने हमारी मदद नहीं की। बाद में मेरी बेटी ने बताया कि मैं बच गया। वो औरत गोली मार सकती थी। अमेरिका में ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं। व्हाइट अमेरिकन यानी गोरे अमेरिकियों के कंपाउंड में कोई ब्लैक यानी काला आदमी घुस जाए तो वो गोली मार सकते हैं। भारतीय भले ही अफ़्रीकी लोगों की तरह काले नहीं हैं लेकिन बहुत से अमेरिकियों के लिए वो ब्लैक या काले ही हैं।
शैलेश कुमार न्यूज़ नेशन के सीईओ एवं प्रधान संपादक रह चुके हैं। उससे पहले उन्होंने देश के पहले चौबीस घंटा न्यूज़ चैनल - ज़ी न्यूज़ - के लॉन्च में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। टीवी टुडे में एग्ज़िक्युटिव प्रड्यूसर के तौर पर उन्होंने आजतक