सहज जिज्ञासा है कि लोग पूछ रहे हैं- ‘अब क्या करना चाहिए?’ एक विशाल देश और उसके एक-दूसरे से लगातार अलग किए जा रहे नागरिक जिस मुक़ाम पर आज खड़े हैं, वे जानना चाह रहे हैं कि उन्हें अब किस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए?
क्या सरकारों के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत खो चुके हैं लोग?
- विचार
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- 18 Sep, 2020

प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकॉनमिस्ट’ ने पिछले दिनों रूस के सम्बन्ध में प्रकाशित अपने एक अग्रलेख में कहा है कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए राष्ट्रवाद और विषाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। अग्रलेख में यह भी कहा गया है कि जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करके शासन करती हैं, वे अंततः खुद भी भय में ही रहने लगती हैं।
आम आदमी की साँसों को प्रभावित करने वाला ऐसा कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जिसमें अभावों के साथ-साथ बाक़ी सभी चीज़ें भी अपने निम्नतम स्तरों पर नहीं पहुँच गई हों। होड़ मची हुई है कि कौन ज़्यादा नीचे गिर सकता है। संविधान निर्माता सात दशक पहले के काल में वर्तमान परिदृश्य की कल्पना नहीं कर पाए होंगे वरना वे कुछ तो लिखकर अवश्य जाते।
हमने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया कि हमारे आसपास की चीज़ें कितनी तेज़ी से फ़ास्ट-फ़ॉरवर्ड हो रही हैं और पलक झपकते ही पुरानी के स्थान पर नई आकृतियाँ प्रकट हो रही हैं। केवल एक उदाहरण ले लें... क्या हमने नोटिस किया कि मॉब-लिंचिंग जैसी घटनाएँ अचानक बंद हो गई हैं, जैसे किसी ने स्विच ऑफ करके ऐसा न करने का फ़रमान जारी कर दिया हो।