वे तमाम लोग जो नीतिपरक (एथिकल) पत्रकारिता की मौत और चैनलों द्वारा परोसी जा रही नशीली ख़बरों को लेकर अपने छाती-माथे कूट रहे हैं, उन्हें हाल में दूसरी बार राज्यसभा के उपसभापति चुने गए खाँटी सम्पादक-पत्रकार हरिवंश नारायण सिंह को लेकर मीडिया में चल रही चर्चाओं पर नज़र डालने के बाद अपनी चिंताओं में संशोधन कर लेने चाहिए। वैसे यह बहस अब पुरानी पड़ चुकी है कि कैसे उस ‘काले’ रविवार (बीस सितम्बर) को लोकतंत्र की उम्मीदों का पूरी तरह से तिरस्कार करते हुए देश के करोड़ों किसानों और खेतिहर मज़दूरों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया गया।