वे तमाम लोग जो नीतिपरक (एथिकल) पत्रकारिता की मौत और चैनलों द्वारा परोसी जा रही नशीली ख़बरों को लेकर अपने छाती-माथे कूट रहे हैं, उन्हें हाल में दूसरी बार राज्यसभा के उपसभापति चुने गए खाँटी सम्पादक-पत्रकार हरिवंश नारायण सिंह को लेकर मीडिया में चल रही चर्चाओं पर नज़र डालने के बाद अपनी चिंताओं में संशोधन कर लेने चाहिए। वैसे यह बहस अब पुरानी पड़ चुकी है कि कैसे उस ‘काले’ रविवार (बीस सितम्बर) को लोकतंत्र की उम्मीदों का पूरी तरह से तिरस्कार करते हुए देश के करोड़ों किसानों और खेतिहर मज़दूरों को सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया गया।
हरिवंश कथा और संसदीय व्यथा
- विचार
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- 24 Sep, 2020

हरिवंश राजनीतिक रूप से तीन लोगों के काफ़ी क़रीब रहे हैं और उसके कारण उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। ये हैं : चंद्रशेखर, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी। तीनों के ही व्यक्तित्व, स्वभाव और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ लगभग एक जैसी रही हैं। अतः असीमित सम्भावनाएँ व्यक्त की जा सकती हैं कि अपनी शांत प्रकृति, प्रत्यक्ष विनम्र छबि और तत्कालीन राजनीति की ज़रूरतों पर ज़बरदस्त पकड़ के चलते हरिवंश आने वाले समय में काफ़ी ऊँचाइयों पर पहुँचेंगे।
यह आलेख मूलतः उन सुधी पाठकों के लिए है, जो पत्रकारिता और राजनीति के बीच गहरी होती जा रही साठगाँठ को अंदर से समझना चाहते हैं। बिहार की वर्तमान राजनीति के महत्वाकांक्षी नायक नीतीश कुमार के आधिपत्य वाली जद (यू) की ओर से वर्ष 2014 में राज्यसभा में पहुँचने के पहले तक हरिवंश नारायण सिंह की उपलब्धियाँ एक निर्भीक और वैचारिक रूप से पारदर्शी समाजवादी पत्रकार की रही है। मेरा भी उनके साथ कोई दो दशकों से इसी रूप में परिचय रहा है। उनके साथ पत्रकारों के दल में एक-दो विदेश यात्राएँ भी की हैं। उनके अख़बार ‘प्रभात खबर’ के एक बड़े समारोह में पत्रकारिता पर बोलने के लिए राँची भी गया हूँ और उसके लिए लिखता भी रहा हूँ। पर हाल में काफ़ी कुछ हो जाने के बाद भी उन्हें लेकर मन में स्थापित पुरानी छबि में अभी पूरी दरार क़ायम नहीं हुई है। एक-दो झटके और ज़रूरी पड़ेंगे।