क्या सैयद हैदर रज़ा जैसे चित्रकार की जिंदगी पर कोई ऐसी दास्तान तैयार की जा सकती है जिसे सुनते हुए पर्याप्त रस मिले या जिससे श्रोता बंधे रहें? यह सवाल शायद कवि-आलोचक और रज़ा फ़ाउंडेशन के निदेशक अशोक वाजपेयी के भीतर भी रहा होगा जब उन्होंने जाने-माने दास्तानगो महमूद फ़ारूक़ी को यह दास्तान तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। आख़िर एक चित्रकार का जीवन इतना नाटकीय या घटनापूर्ण नहीं होता कि उसे दो घंटे तक सुनने में लोगों की दिलचस्पी बनी रहे।