मिखाइल गोर्बाचेव दफ़नाए जा चुके हैं। इसके साथ ही क़ब्रों में सो रही यादें ज़िंदा हो उठीं। समाजवादी विश्व की, जो अब एक भूला हुआ सपना जान पड़ता है। उस दर्द की, जो अनेकानेक के मन में आज से कोई 30 साल पहले समाजवादी विश्व और सोवियत संघ के पतन के चलते पैदा हुआ था। 30 साल एक पीढ़ी के गुजर जाने और दूसरी के पाँव जमा लेने के लिए काफ़ी हैं। इन दोनों के लिए गोर्बाचेव के मायने एक नहीं। या एक पीढ़ी के लिए, जो व्लादिमीर पुतिन और रूस को ही साथ-साथ देखती थी या है, गोर्बाचेव संभवतः सिर्फ़ एक शब्द है। उसकी ध्वनि से कोई स्मृति नहीं जगती, कोई अर्थ पैदा नहीं होता।