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चीन की घेराबंदी के लिये अमेरिका ने रचा चक्रव्यूह! 

क्या दुनिया एक नए शीत युद्ध की ओर बढ़ रही है और उसे केंद्र में रख कर ही नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं? क्या दुनिया के फोकस पर अब एशिया होगा और सबकी  निगाहें चीन पर होंगी? और इसमें भारत की भूमिका क्या और कितनी होगी?

इन सवालों के जवाब तुरन्त पक्के तौर पर तो नहीं दिए जा सकते हैं, पर हाल की कुछ घटनाओं से कुछ संकेत ज़रूर मिलते हैं।

सबसे ताज़ा घटना है ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का एक सैन्य संधि बनाना जिसका मक़सद घोषित तौर पर ही एशिया प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को मजबूत करना है।

बुधवार को इसका विधिवत एलान हो गया। इसे AUKUS (एयूकेयूएस) कहा जा रहा है।

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इसके तहत ऑस्ट्रेलिया अमेरिकी मदद से परमाणु पनडुब्बियाँ बनाएगा।

इस चक्कर में अमेरिका ने पनडुब्बियों के लिए फ्रांस को दिया 40 अरब डॉलर का ठेका रद्द कर दिया। ज़ाहिर है, फ्रांस गुस्से में है और इसे 'पीठ में छुरा भोंकना' बता रहा है।

ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इस पर दस्तख़त करते हुए कहा, "हम सभी इससे सहमत हैं कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में दीर्घकालिक शांति स्थापित करना ज़रूरी है।"

बाइडन ने कहा,

हमें मौजूदा रणनीतिक स्थितियों को तो ध्यान में रखना है ही, भविष्य का भी ख्याल रखना है क्योंकि पूरी दुनिया के लिए यह आवश्यक है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शांति बरक़रार रहे और यह सबके लिए समान रूप से खुला हुआ रहे।


जो बाइडन, राष्ट्रपति, अमेरिका

चीन की तीखी प्रतिक्रिया

अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन का नाम नहीं लिया। लेकिन इस संधि पर दस्तख़त होने के बाद सबसे पहली प्रतिक्रिया देने वाला देश चीन ही था।

 चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने इस संधि को न केवल 'बेहद ग़ैर ज़िम्मेदार' बताया बल्कि 'एशिया प्रशांत क्षेत्र की स्थिरता के लिए ख़तरनाक' भी क़रार दिया।

इसके साथ ही वाशिंगटन स्थित चीनी दूतावास के एक प्रवक्ता ने अपील की कि इन तीन देशों को 'शीत युद्ध और वैचारिक व सैद्धांतिक पूर्वाग्रहों' से बाहर निकलना चाहिए।

चीन को घेरने की रणनीति

चीन की प्रतक्रिया न तो अनपेक्षित है न ही अनुचित।

अमेरिका की यह लंबे समय से रणनीति रही है कि चीन को किसी तरह घेरा जाए।

डोनल्ड ट्रंप ने इसे व्यापारिक तरीके से घेरने की कोशिश की थी और चीनी आयातों पर अव्यावहारिक आयात शुल्क लगा दिया था, जिसकी प्रतिक्रिया में चीन ने भी अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क लगा दिए।

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दोनों देशों के बीच व्यापार प्रभावित होने लगा और अमेरिका को ज़्यादा नुक़सान हुआ तो दोनों देशों ने मिल बैठ कर बीच का रास्ता निकाला और एक संधि कर लगाए गए उत्पाद करों में थोड़ी कमी की और दोनों ने एक दूसरे को रियायतें भी दीं।

जो बाइडन का रास्ता थोड़ा अलग है। वे ट्रंप की तरह आक्रामक नहीं हैं, लेकिन वे चीन को छोड़ भी नहीं सकते। लिहाजा उन्होंने सीधे सैन्य संधि कर चीन ही नहीं पूरी दुनिया को संकेत दे दिया है।

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चीनी अर्थव्यवस्था

चीन को रोकने की कोशिश का बड़ा कारण यह है कि 1980 के दशक में जब तत्कालीन चीनी नेता देंग शियाओ पिंग ने चीनी अर्थनीति में बुनियादी बदलाव किया तो अगले 20 साल में चीन की औसत आर्थिक विकास दर 10 प्रतिशत के आसापस रही। ऐसा समय भी आया जब चीन ने 20 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की।

इसका नतीजा यह हुआ कि चीनी अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी नंबर की अर्थव्यवस्था बन चुकी है, उसके पास उसकी अपनी ज़रूरतों से ज़्यादा उत्पादन भी है और पैसे भी।

ये पैसे और ये उत्पाद चीन में नहीं खप सकते, लिहाज़ा उसे बाहर भेजना है और दूसरे देशों में सस्ती कीमत पर ये उत्पाद और तकनीक देकर वहाँ के व्यापार पर क़ब्ज़ा जमाना है।

चीनी सपना

इससे जुड़ा हुआ मामला है चीनी सपना यानी 'चाइनीज़ ड्रीम' का, जिसने पूरी दुनिया की नींद उड़ा दी है। शी जिनपिंग ने राष्ट्रपति बनने के कुछ दिन बाद 2014 में 'चाइनीज़ ड्रीम' का एलान किया। आसान शब्दों में कहा जाए तो यह सपना चीन को 'पुनर्जीवित' कर 'आर्थिक सैन्य और राजनीतिक मामलों में दुनिया का सबसे समृद्ध देश' बनाना है।

शी जिनपिंग ने कहा था कि यह काम 2049 में हो जाना चाहिए। 

चीनी क्रांति 1949 में हुई थी, यानी इस कृषक क्रांति या समाजवादी क्रांति के जब सौ साल पूरे हों तो चीन दुनिया का 'सबसे समृद्ध, प्रतिष्ठित और सुरक्षित देश' रहे। इसका अर्थ लगाया गया कि 2049 में पूरी दुनिया पर चीन का बोलबाला रहे।

शीतयुद्ध

यह वैसा ही है जैसा रूस के तत्कालीन नेता जोसफ़ स्टालिन ने माना था। हालांकि स्टालिन या सोवियत संघ कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएसयू) ने कभी भी यह नहीं कहा था कि वे रूस को सबसे ताक़तवर देश के रूप में स्थापित करना चाहते हैं।

रूस का मानना था कि पूंजीवादी देश एक साम्यवादी सरकार को नहीं टिकने देंगे और उनका सामना करने के लिए यह ज़रूरी है कि यह साम्यवादी देश यानी सोवियत संघ आर्थिक, सामरिक, राजनीतिक व सामाजिक रूप से इतना मजबूत रहे कि उसे उखाड़ कर हटाना मुमकिन नहीं हो।

सोवियत संघ के विकास और उसकी बढ़ती ताक़त से चिंतित अमेरिका ने उसे रोकने के लिए हर तरह के उपाय करने शुरू किए। इसी कोशिश का नतीजा है कि उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) जैसे सामरिक गठबंधन बने तो यूरोपीय संघ जैसे व्यापारिक गठबंधन ने जन्म लिया। दूसरी ओर सोवियत संघ ने भी कम्युनिस्ट देशों को लेकर अपना अलग सैन्य संगठन और आर्थिक गुट बनाया।

इससे शीत युद्ध की शुरुआत हुई और पूरी दुनिया दो खेमों में बंट गयी। 

दुनिया एक बार फिर उसी स्थिति की ओर बढ़ रही है।

यह तो साफ है कि चीन को रोकना मुश्किल होगा। लेकिन उसके इलाक़े में उसे घेर लिया जाए तो न सिर्फ आर्थिक बल्कि सैन्य रूप से उसे कमजोर किया जा सकता है या उसमें उलझा कर रखा जा सकता है।

दक्षिण चीन सागर

चीन का इलाक़ा है एशिया प्रशांत का वह क्षेत्र जो प्रशांत महासागर के बड़े हिस्से और हिन्द महासागर के एक हिस्से को मिल कर बनता है। इसमें वह दक्षिण चीन सागर भी है, जिसके अलग-अलग हिस्से पर कई देशों की दावेदारी है और कई देशों से चीन का सीमा विवाद है।

इसके मूल में वह काल्पनिक इलाक़ा है जिसे चीन 'नाइन डैश लाइन' कहता है। उसका कहना है कि 'नाइन डैश लाइन' के अंदर आने वाले इलाक़े पर उसका नियंत्रण चीनी सभ्यता की शुरुआत से ही है और वह इसके पक्ष में दो हजार साल पहले लिखी गई किताबों के उद्धरणों का सहारा लेता है।  

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सीमा विवाद

नतीजा है कि चीन का सीमा विवाद जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्रूनेई, फ़िलीपीन्स, थाईलैंड, वियतनाम, सिंगापुर और लाओस जैसे छोटे से देश तक से है। इंडोनेशिया और फ़िलीपीन्स से उसके नौसेना की छोटी-मोटी झड़पें कई बार हो चुकी हैं, वियतनाम से 1978 में युद्ध तक हो चुका है।

अमेरिका की दिलचस्पी इस दक्षिण चीन सागर के विवाद में दूसरों के कंधे पर रख कर बंदूक चलाने की है। उसे खुद इस इलाक़े से कोई मतलब नहीं होना चाहिए क्योंकि वह इस इलाके का नहीं है, पर वह जापान को आगे करना चाहता है।

उसकी नजऱ ऑस्ट्रेलिया पर भी इसलिए है कि वह देश भले ही दक्षिण चीन सागर में न हो, पर एशिया प्रशांत में है।

एशिया प्रशांत में अमेरिका के नौसैनिक अड्डे पहले से ही हैं। सबसे अहम गुआम, फ़िलीपीन्स, जापान के नौसैनिक अड्डे हैं। इसमें यदि ऑस्ट्रेलिया को जोड़ लिया जाए और थोड़ा आगे बढ़ कर डिएगो गार्सिया पर पहले से मौजूद नौसैनिक अड्डे को शामिल कर लिया जाए तो अमेरिकी दबदबा एशिया प्रशांत से हिन्द महासागर और अफ्रीका तक है।

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ऑस्ट्रेलिया का महत्व यही है कि उसके बंदरगाह चीन पर हमला करने के लिए हमेशा तैयार रहें। उसकी पनडुब्बियाँ पूरे एशिया प्रशांत को मथती रहें, चीन और दक्षिण चीन सागर के दूसरे देशों की जासूसी करती रहें और कभी भी किसी भी समय कुछ घंटों के नोटिस पर चीन के किसी बंदरगाह या सैनिक ठिकाने पर हमला करने में सक्षम रहें।

ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका-यूके यानी AUKUS (एयूकेयूएस) संधि इसी को ध्यान में रख कर किया गया है। इस संधि से चीन का चिंतित होना स्वाभाविक है क्योंकि उसे ही घेरने के लिए यह सबकुछ किया जा रहा है। पूरी दुनिया की नज़र अब इस पर होगी कि चीन इस पर क्या जवाबी कार्रवाई करता है। 

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प्रमोद मल्लिक
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