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सरकार क्या क्या करे...महंगाई की चिन्ता करे या चुनाव जीतने की!

दुनिया में मंहगाई एक ऐसा अश्व यानि घोड़ा है जिसका कोई मालिक नहीं है। कोई सरकार इस घोड़े की लगाम थामने में आजतक कामयाब नहीं हुई। पहले इस मंहगाई के घोड़े की लगाम कसने के लिए जनता भी हड़ताल और आंदोलन कर सरकारों पर दबाब बनाती थी,किन्तु अब जनता ने मंहगाई को अपना नसीब मान लिया है। भारत में मंहगाई भगवान का कोप मानी जाती है। कोई भी अब इसे सरकार की नाकामी नहीं मानता। माने भी कैसे ,ये तो अजर -अमर है।
भारत में जून महीने में खाने-पीने का सामान महंगा हो गया है, जिसकी वजह से खुदरा महंगाई दरमें फिर से इजाफा हो गया  लेकिन किसी ने चूं तक नहीं की।  पिछले कुछ महीनों से सीपीआई  के आंकड़ों में गिरावट देखने को मिल रही थी, लेकिन जून महीने में इनमें इजाफा हो गया है. खाद्य उत्पादों की कीमतें बढ़ने से जून में खुदरा मुद्रास्फीति  बढ़कर तीन महीनों के उच्चस्तर 4.81 प्रतिशत पर पहुंच गई। हमारी सरकार या सरकारें न मंहगाई को रोक पाती हैं और न मुद्रास्फीति को। दोनों अपने आप आसमान छूती है।
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दरअसल घोड़े मंहगाई से भी पुराने है। उपलब्ध सूचनाएं बताती हैं की मनुष्य ने ईसापूर्व 4  हजार साल पहले ही घोड़े पालना शुरू कर दिया था ।  तब न बाजार था और न मंहगाई। सरकार तो थी ही नही।  कालान्तर में यही घोडा जनता के लिए मुसीबत बन गया है। घोड़े दो प्रकार के होते है।  एक पालतू घोड़ा और दूसरा जंगली घोड़ा। पालतू घोड़े के मुंह में आदमी लगाम लगा सकता है । लेकिन जंगली घोड़ा बे-लगाम होता है। ठीक नील गाय की तरह। जंगली घोड़ा वैसे तो अब लुप्तप्राय है किन्तु उसने आबादी को ही जंगल समझ लिया है। जंगली घोड़ा ही कालांतर में मंहगाई का अवतार है।  

मंहगाई के घोड़े की लगाम भले ही सरकार के हाथ में नहीं होती लेकिन मंहगाई के घोड़े ने कितना चर लिया इसकी जानकारी सरकार के पास जरूर होती है। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक कहते हैं।  


सरकार ने बुधवार को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक  पर आधारित मुद्रास्फीति के आंकड़े जारी किए तो पता चला की  मई यानि आषाढ़ में खुदरा मुद्रास्फीति 4.31 प्रतिशत रही थी जबकि साल भर पहले जून, 2022 में यह सात प्रतिशत थी।  जून में खाद्य उत्पादों की मुद्रास्फीति 4.49 प्रतिशत रही जबकि मई में यह 2.96 प्रतिशत थी. सीपीआई में खाद्य उत्पादों का भारांक लगभग आधा होता है। जून में खुदरा मुद्रास्फीति की दर बढ़ने के बावजूद यह भारतीय रिजर्व बैंक के छह प्रतिशत के संतोषजनक स्तर के नीचे है ।  अब ऐसे में जनता असंतुष्ट कैसे हो सकती है ?

विसंगति ये है कि मंहगाई के घोड़े की चाल की समीक्षा जनता नहीं हमारी रिजर्व बैंक करती है। सरकार ने रिजर्व बैंक को खुदरा मुद्रास्फीति को दो प्रतिशत घट-बढ़ के साथ चार प्रतिशत तक सीमित रखने का दायित्व सौंपा हुआ है। रिजर्व बैंक खुदरा मुद्रास्फीति के आंकड़े को ध्यान में रखते हुए द्विमासिक मौद्रिक समीक्षा करती है। मंहगाई का घोड़ा आपका टमाटर,जीरा,दालें तेल ,दवाएं यानि जो मनुष्य के इस्तेमाल की चीजें हैं ,सभी पर अपना असर छोड़ता है। मंहगाई का घोड़ा न रसोई को छोड़ता है और न पूजाघर को। उसे तो बस चरने से काम है। घोड़े के कुनबे में गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड़-खर एवं खच्चर भी शामिल हैं किन्तु सबसे ज्यादा चराई घोड़ा ही करता है।
विश्व सम्राट या विश्व गुरु बनने की कामना रखने वाले लोग प्राय घोड़े को छुट्टा छोड़ देते है।  इसे अश्वमेघ का घोड़ा कहते हैं। सरकार ने भी विश्वगुरु बनने के लिए अपना अश्व छोड़ा किन्तु ये दुनिया में विचरने के बजाय हमारे देश में ही जहां-तहाँ मुंह मारता दिखाई देता है। जो मिला रहा है उसे साफ़ किये दे रहा है। जनता मंहगाई के इस बे-लगाम घोड़े के खुरों से रोंदी जा रही है। किसी को भी इस बे-लगाम घोड़े के टापों की आवाज नहीं सुनाई देती। ये कब आता है,कब जाता है कोई नहीं जानता ? 

वैसे अब कोई मंहगाई के घोड़े के उत्पात की चर्चा भी नहीं करता। चर्चा के लिए यूसीसी है,कांग्रेस का एटीएम है। भ्र्ष्टाचारियों को डरा-धमका कर उप मुख्यमंत्री और मंत्री बनाना है। ऐसे में मंहगाई के घोड़े की चर्चा क्या करना ?


मुझे याद है कि पहले संसद से सड़क तक मंहगाई के इस घोड़े के उपद्रव की चर्चा होती थी ।  हमारे जन प्रतिनिधि एप्रिन पहनकर उसके ऊपर मंहगाई विरोधी नारे लिखकर संसद और विधानसभाओं में जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होता ।  हमारे  सूबे में तो विधानसभा का सत्र नाम के लिए बुलाया जाता है।पांच दिन का सत्र एक दिन में निबटा दिया जाता है। मंहगाई के घोड़े पर ख़ाक चर्चा करेगा कोई? मंहगाई का घोड़ा मस्त और जनता पस्त है । नेता सुस्त है। 
विशेषज्ञ बताते हैं कि अश्व पुरातन काल से ही इतना तीव्रगामी और शक्तिशाली नहीं था जितना वह आज है। नियंत्रित सुप्रजनन द्वारा अनेक अच्छे घोड़े संभव हो सके। यहां तक कि घोड़ों की ताकत से प्रभावित होकर ही मनुष्य ने मशीनों की ताकत कि माप के लिए अश्वशक्ति कहकर सम्मानित किया। कालांतर में ये घोड़े राजीनीति में भी मौजूद है। इन्हें खरीदना-बेचना बहुत आसान है । राजनीति में घोड़ों यानि जनप्रतिनिधियों की खरीद -फरोख्त को ' हार्स ट्रेडिंग ' कहा जाता है । बिकने वाले घोड़ों को मुंह मांगे दाम मिलते है। सहूलियतें अलग।
आज मंहगाई के घोड़ों के मुकाबले बिकने वाले घोड़ों की तरफ सरकार का ध्यान ज्यादा है। सरकार को पता है कि अब जनता मंहगाई के घोड़े के उपद्रव को बुरा नहीं मानती ।  आँखें बंद कर अपनी दुर्दशा पर रो लेती है किन्तु न सड़कों पर उतरती है और न सरकारों को इसकी सजा देती है। जनता को सजा देने का अधिकार है ही नही।  मान लीजिये कि यदि था भी तो उसे लाड़ली बहनो ,भांजों,भांजियों ,आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं,बेरोजगार युवाओं को मुफ्त का माल देकर छीन लिया गया है। यहां तक कि हमारी सरकार ने तो इस अधिकार को पांच किलो अन्न मुफ्त में देकर हड़प लिया।

दरअसल मंहगाई के घोड़े पर लगाम लगाने से ज्यादा जरूरी चुनाव जीतना है। वैसे सब घोड़े मंहगाई के घोड़ों की तरह बे-लगाम नहीं होते।  कुछ घोड़े चेतक जैसे भी होते है।


चेतक को नहीं जानते आप ? महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध घोड़े का नाम चेतक था। चेतक अश्व गुजरात के चारण व्यापारी काठियावाड़ी नस्ल के तीन घोडे चेतक,त्राटक और अटक लेकर मेवाड़ आए। अटक परीक्षण में काम आ गया। त्राटक महाराणा प्रताप ने उनके छोटे भाई शक्ति सिंह को दे दिया और चेतक को स्वयं रख लिया। इन घोड़ों के बदले महाराणा ने चारण व्यापारियों को जागीर में गढ़वाड़ा और भानोल नामक दो गाँव भेंट किए।चेतक स्वामिभक्त था । 

मंहगाई का घोड़ा सरकार भक्त है।


कहते हैं कि 1576  के हल्दी घाटी के युद्ध में चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता एवं वीरता का परिचय दिया था। युद्ध में बुरी तरह घायल हो जाने पर भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल रहा। उस क्रम में चेतक ने 25 फिट नाले को छलांग लगाकर पार किया, लेकिन बुरी तरह घायल हो जाने के कारण अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ। लेकिन मंहगाई का चेतक छलांग पर छलांग लगा रहा है लेकिन वीर गति के बजाय धीर्गति को प्राप्त हो रहा है । 
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जनता को मंहगाई के चेतक के शहीद होने का इन्तजार है। पता नहीं कब और कौन सी सरकार मंहगाई के घोड़े को शहीद होने का अवसर देगी। वैसे हर चुनाव में जनता को सरकार पर इस घोड़े को काबू में करने के लिए दबाब बनाने का मौक़ा मिलता है किन्तु जनता आहार बार भूल कर देती है । कभी-कभी ईवीएम उससे गलती करा लेती है तो कभी कोई और बहुरूपिया।
(राकेश अचल के फेसबुक पेज से)
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क़मर वहीद नक़वी
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