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अली सरदार जाफरी: ‘मैं मर के अमर हो जाता हूँ...’

आज यानी 29 नवम्बर को शायर अली सरदार जाफरी का जन्मदिन है।

‘‘कोई ‘सरदार’ कब था इससे पहले तेरी महफिल में

बहुत अहल-ए-सुखन उट्ठे बहुत अहल-ए-कलाम आये।’’ 

अली सरदार जाफरी का यह शेर उनकी अज़्मत और उर्दू अदब में अहमियत बतलाने के लिए काफ़ी है। अली सरदार जाफरी एक अकेले शख्स का नाम नहीं, बल्कि एक पूरे अहद और तहरीक का नाम है। उनका अदबी काम, सियासी-समाजी तहरीक में हिस्सेदारी और तमाम तहरीरें इस बात की तस्दीक करती हैं। वे न सिर्फ़ एक जोशीले अदीब, इंक़लाबी शायर थे, बल्कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में भी उन्होंने सरगर्म हिस्सेदारी की। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के लिए जो उसूल तय कर रखे थे, उन पर आख़िरी दम तक चले। अली सरदार जाफरी तरक्कीपसंद तहरीक के बानियों में से एक थे और आख़िरी वक़्त तक वे इस तहरीक से जुड़े रहे। मुल्क भर में तरक्कीपसंद तहरीक को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने काफ़ी कुछ किया। मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर उनकी अज़्मत को कम्युनिस्ट पार्टी की निशानी हंसिया हथौड़ा के तौर पर देखते थे, तो सज्जाद जहीर की नज़र में भी सरदार जाफरी का बड़ा मर्तबा और एहतराम था। उनके बारे में जहीर का ख्याल था, ‘सरदार हमारी तहरीक की शमशीर-ए-बेनियाम हैं।’ यही नहीं उनका तो यहाँ तक मानना था, ‘सरदार जाफरी बहस-मुबाहिसे के मैदान के शहसवार हैं।’ अली सरदार जाफरी ने अपनी पूरी ज़िंदगी अदब और आंदोलनों के नाम कर दी थी। चाहे आज़ादी का आंदोलन हो, कामगार-मज़दूरों के धरने-प्रदर्शन, स्टूडेंट्स मूवमेंट हो या फिर अदीबों का आंदोलन वे इन सभी आंदोलनों में हमेशा पेश रहते थे। कृश्न चंदर का अली सरदार जाफरी के बारे में कहना था, ‘उनसे मिलो, तो मालूम होता है कि किसी तहरीक से मिल रहे हैं।’ 

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इस्मत चुगताई उन्हें तरक्की पसंदों का सिपहसालार मानती थीं। और यह बात सच भी है, वह जब तक ज़िंदा रहे, तरक्कीपसंदों की ओर से मोर्चा लेते रहे। आलम यह था कि कदामतपसंद और तंगनजर जेहनियत वाले उनसे बहस करने से घबराते थे। अली सरदार जाफरी की शख्सियत में भी एक पुरअसर कशिश थी। वे जब अपनी नज़्म पढ़ते हुए या तकरीर करते वक़्त अपने लंबे बालों को पेशानी से पीछे करते, तो नौजवानों ख़स तौर पर ख्वातीनों के दिल में एक हूक सी उठती।

‘यह आब व ख़ाक व बाद का जहाँ बहुत हसीन है/अगर कोई बहिश्त है, तो बस यही जमीन है।’ 

अली सरदार जाफरी का संघर्ष मुल्क की आज़ादी तक ही महदूद नहीं रहा, आज़ादी के बाद उन्होंने एक अलग लड़ाई लड़ी। और यह लड़ाई थी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, राष्ट्रीय एकता और अखंडता कायमगी की। देश की समृद्ध विरासत और गंगा-जमुनी तहजीब को बचाने की। निदा फाजली ने अपने एक लेख में अली सरदार जाफरी के बारे में क्या खूब कहा है,

‘सरदार जाफरी, नाम से मुसलमान थे, लेकिन अपने काम से लम्बी तारीख़ के सेक्युलर हिंदुस्तान थे।’

साल 1913 का नवम्बर, अली सरदार जाफरी की पैदाइश का महीना है। अपनी एक नज़्म में वह इस बात का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं,

‘नवम्बर, मेरा गहवारा है, यह मेरा महीना है/इसी माहे-मन्नवर में/मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी/मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी।’

नवम्बर महीने की 29 तारीख़ को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में मजहब के पाबंद और परहेजगार खानदान में जन्मे अली सरदार जाफरी की शुरुआती तालीम घर में ही हुई। उर्दू, फारसी सीखने के बाद मजहबी तालीम के वास्ते उनका दाखिला लखनऊ के सुल्तानुल मदारिस में करा दिया गया। इसके पीछे परिवार की यह सोच थी कि वह मौलवी बन जाएँगे। लेकिन अली सरदार जाफरी इसके लिए नहीं बने थे। उन्हें तो अपनी जिंदगी में कुछ और ही करना था। लिखने-पढ़ने का चस्का सरदार जाफरी को बचपन से ही पड़ गया था। खास तौर से उन्हें अनीस के मर्सिये बहुत पसंद थे। पन्द्रह-सोलह बरस की उम्र आने तक उन्होंने मर्सिये लिखने शुरू कर दिए थे। 

अली सरदार जाफरी की ज़िंदगी में बड़ा बदलाव तब आया, जब उन्होंने लेनिन की जीवनी पढ़ी। इस किताब ने उनकी पूरी ज़िंदगी बदल दी और उन्हें जीने का एक नया मक़सद दे दिया।
बहरहाल, सरदार जाफरी ने जब अपनी पहली नज़्म ‘समाज’ लिखी, तो उसने जैसे उनके अदब की पूरी दिशा तय कर दी।
‘तमन्नाओं में कब तक जिंदगी उलझाई जाएगी/खिलौने दे के कब तक मुफलिसी बहलाई जाएगी/नया चश्मा है पत्थर के शिगाफों से उबलने को/जमाना किस कदर बेताब है करवट बदलने को।’

अली सरदार जाफरी की आला तालीम अलीगढ़ मुसलिम यूनीवर्सिटी, एंग्लो-अरेबिक कॉलेज, दिल्ली और लखनऊ यूनिवर्सिटी में हुई। यह वह दौर था, जब मुल्क में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई अपने उरूज पर थी और मुल्क का हर बाशिंदा ख़ास तौर से नौजवान, अपनी-अपनी तरह से आज़ादी के इस आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। अली सरदार जाफरी के दिल में वतनपरस्ती का जज्बा बचपन से ही था। अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में वह जब पढ़ने के लिए पहुँचे तो उनको उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों, अदीबों की संगत मिली। इन अदीबों में अख्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज्बी, मजाज, हयातुल्ला अंसारी, सआदत हसन मंटो, आले अहमद सरूर, जांनिसार अख्तर, इस्मत चुगताई और ख्वाजा अहमद अब्बास वगैरह शामिल थे। वह मंटो ही थे, जिन्होंने अली सरदार जाफरी का विक्टर ह्यूगो और गोर्की के अदब से पहली बार तआरुफ कराया। यह बात अलग है कि आगे चलकर विचारों में भिन्नता की वजह से इन दोनों के बीच काफ़ी दूरी बढ़ गई, मगर जाती दोस्ती में कोई फर्क नहीं आया।

अली सरदार जाफरी अपने बागियाना तेवर और इंक़लाबी सोच के चलते अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में जल्द ही मकबूल हो गए। पढ़ाई से ज़्यादा उनका दिल आज़ादी के आंदोलन में लगता।

वह ऐसे मौक़े ढ़ूंढ़ते रहते, जिसमें बरतानिया हुकूमत और उसकी नीतियों की मुखालिफत कर सकें। एक मर्तबा जब यूनिवर्सिटी में वॉयसराय के एग्जीक्यूटिव काउंसिल के मेम्बर आए, तो उन्होंने उनके ख़िलाफ़ हड़ताल कर दी। बहरहाल, इस हड़ताल करने के इल्जाम में अली सरदार जाफरी को यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया। अपनी पढ़ाई आगे जारी रखते हुए उन्होंने एंग्लो-अरेबिक कॉलेज, दिल्ली से बी.ए. पास किया और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की। अली सरदार जाफरी अपने कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन में शामिल हो गए थे और स्टूडेंट मूवमेंट में खुलकर हिस्सा लेते थे। अपनी वामपंथी विचारधारा की वजह से वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और आगे चलकर वह इस संगठन के प्रमुख स्तंभ बन गए। अली सरदार जाफरी के दिल में मेहनतकशों की जानिब सहानुभूति बचपन से ही थी। अवध के सामंती निज़ाम में उन्होंने किसानों का शोषण देखा था। उनका कहना था,

‘मेहनतकश चाहे खेत के खुले वातावरण में काम करने वाला किसान हो या मिल की कफस में कार्यरत मजदूर, शोषण तो उसका हर जगह होता है। सबसे अधिक दुख तो इस बात का है कि बाल श्रमिक भी इस शोषण से नहीं बच पाया है।’

उनकी यह क्रांतिकारी सोच ही थी कि वे आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी के सरगर्म मेंबर बन गए।

अली सरदार जाफरी का साम्यवाद पर गहरा यक़ीन था और इस विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपना सक्रिय योगदान दिया। अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन और साम्राज्य विरोधी नज्मों की वजह से उन्हें कई मर्तबा जेल भी जाना पड़ा। लेकिन उनका हौसला पस्त नहीं हुआ। अली सरदार जाफरी की कई बेहतरीन नज़्में जेल की सलाखों के पीछे ही लिखी गई हैं। सरदार जाफरी की शायरी में कई मर्तबा विचार इतना हावी हो जाता था कि कुछ रूमानी-इश्किया शायरी करने वाले शायरों को उनके शायर होने पर भी एतराज था। लेकिन अपनी इन आलोचनाओं के बाद भी उन्होंने अपनी शायरी का मौजू़ और स्टाइल नहीं बदला। जो उनके दिल को सही लगा, वही लिखा। उन मसलों और मुद्दों पर भी लिखा,

‘जिसे शायर गजल या नज़्म का मौजूं नहीं मानते। मिसाल के तौर पर उनके इस अशआर पर नज़र डालिये, ‘गाय के थन से निकलती है चमकती चांदी/धुंए से काले तवे भी चिंगारियों के होठों से हंस रहे हैं।’

अली सरदार जाफरी, मिजाज से इंकलाबी शायर हैं। उन्होंने गजलों के बजाय ज्यादातर नज्में लिखीं और उनकी इन नज्मों में वर्ग चेतना साफ तौर पर दिखलाई देती है।

‘मां है रेशम के कार-ख़ाने में/बाप मसरूफ़ सूती मिल में है/कोख से मां की जब से निकला है/बच्चा खोली के काले दिल में है/जब यहां से निकल के जाएगा/कार-ख़ानों के काम आएगा/अपने मजबूर पेट की ख़ातिर/भूक सरमाए की बढ़ाएगा।’

सरदार जाफरी सियासी और समाजी मसलों को यथार्थवादी नज़रिए से देखते हैं। दुनिया भर के घटनाक्रमों पर उनकी नज़र रहती थी। लिहाज़ा कहीं पर भी कुछ ग़लत होता, किसी के साथ नाइंसाफी और जुल्म होता उनकी कलम आग उगलने लगती। ‘नई दुनिया को सलाम’ नज्म में वह मेहनत और मेहनतकशों की अहमियत का ज़िक्र इन अल्फाजों के साथ करते हैं, ‘चांद की तरह गोल और सूरज की मानिंद गर्म/आह ये रोटियाँ आसमानों में पकती नहीं हैं/ये हैं इंसान के हाथों की तखलीक/उसकी सदियों की मेहनत का फल।’ वहीं ‘जमहूर’ नामक अपनी सियासी मसनवी में वे किसानों और कामगारों को आवाज़ देते हुए लिखते हैं, ‘मसीहा के होंठों का एजाज हम/मुहम्मद के सीने की आवाज़ हम/हमारी जबीं पर है मेहनत का ताज/हमीं ने किया है जमीं से खिराज।’

साल 1944 में आए अली सरदार जाफरी के पहले काव्य संग्रह ‘परवाज’ में ऐसी कई रचनाएँ मिल जाएँगी, जिनमें किसानों और मजदूरों की दुर्दशा का ही अकेला चित्रण नहीं है, बल्कि इन रचनाओं के आखिर में वे उन्हें क्रांति के लिए आवाज भी देते हैं। सरदार जाफरी यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मुल्क में यदि जम्हूरियत की कायमगी होगी, तो वह इन्हीं के दम पर मुमकिन होगी। यही नहीं, वे आदमी-औरत में भी कोई फर्क नहीं करते थे। उनकी नजर में ये दोनों ही समान हैं। किसी अहद के बदलाव के लिए दोनों की ही ज़रूरत और अहमियत है। ‘मज़दूर लड़कियाँ’ नज़्म में सरदार जाफरी लिखते हैं,

‘बेकसी इनकी जवानी मुफलिसी इना शबाब/अपनी नज़रों से ये लिख सकती हैं तारीखों के बाब/इनके तेवर देखती रहती हैं चश्मे इंकलाब।’

अली सरदार जाफरी ने अपनी शायरी में धार्मिक आडंबर, रूढ़ियों और कर्मकांडो का भी खुलकर विरोध किया।

‘लहू चूसा मजे ले ले के मजहब ने खुदाई का/बिछाया जाल पीराने कुहन ने पारसाई का।’

अली सरदार जाफरी ने न सिर्फ़ साम्राज्यविरोधी, फासीवाद विरोधी शायरी की बल्कि अपनी शायरी में सामंतवाद और सरमायेदारी की भी पुरजोर मुखालिफत की। ‘जमहूर’ शीर्षक मसनवी में वे सरमायेदारों को यह कहकर खिताब करते हैं, ‘ये हैं फख्र हैवानित के लिए/ये हैं कोढ़ इंसानियत के लिए।’ अपनी इसी नज़्म में वह साम्राज्यवादियों के असल किरदार और उनके ख़तरनाक इरादों का पर्दाफाश करते हुए कहते हैं, ‘वो कातिल फिलस्तीनो यूनान के/वो दुश्मन हैं जावा के ईरान के/वो सीने पै हैं एशिया के सवार/वो इंसान का खेलते हैं शिकार/वो मजलूम पर रहम खाते नहीं/कभी भेड़िये मुस्कराते नहीं।’ साल 1939 में जब दूसरी आलमी जंग शुरू हुई, तो इस जंग का विरोध दुनिया भर के दानिश्वरों और अदीबों ने किया। क्योंकि जंग किसी मसले का हल नहीं। जंग का असर हर एक पर पड़ता है। दूसरी आलमी जंग हिंदुस्तान की सरजमीं पर नहीं लड़ी गई, मगर इसकी वजह से देशवासियों को अकाल, भुखमरी, महंगाई आदि परेशानियाँ झेलना पड़ीं। जिन तरक्कीपसंद शायरों ने जंग के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा नज़्में लिखीं, उनमें अली सरदार जाफरी का भी नाम अव्वल नंबर पर है। ‘जंग और इंकलाब’ नज़्म में उन्होंने लिखा,

‘इंकलाबे दहर का चढ़ता हुआ पारा है जंग/वक्त की रफ्तार का मुड़ता हुआ धारा है जंग।’

अली सरदार जाफरी की नज़्मों की कोई भी किताब उठाकर देख लीजिए, उनमें इंकलाबी नज़्में ज़रूर मिलेंगी। यही नहीं सियासी बेदारी की वजह से देश-दुनिया में जब भी कोई बड़ा वाकिआत होता, अली सरदार जाफरी उसे अपनी नज़्म में ज़रूर ढालते।

‘बग़ावत’, ‘अहदे हाजिर’, ‘सामराजी लड़ाई’, ‘इंकलाबे रूस’, ‘मल्लाहों की बगावत’, ‘फरेब’, ‘सैलाबे चीन’, ‘जश्ने बगावत’ आदि नज्मों में उन्होंने अपने समय के बड़े सवालों की अक्कासी की है। सच बात तो यह है कि उन्होंने अपने आसपास की समस्याओं से कभी मुंह नहीं चुराया, बल्कि उसकी आँखों में आँखें डालकर बात की। बंगाल का जब भयंकर अकाल पड़ा, तो अली सरदार जाफरी की कलम ने लिखा, ‘चंद टुकड़ों के लिए झांसी की रानी बिक गई/आबरू मरियम की सीता की जवानी बिक गई/गांव वीरां हो गए हर झोंपड़ा सुनसान है/खित्ता-ए-बंगाल है या एक कब्रिस्तान है।’ 

मुल्क की आज़ादी बंटवारा लेकर आई। साम्राज्यवादी साजिशों के चलते मुल्क भारत और पाकिस्तान के बीच बंट गया। तमाम तरक्की पसंद शायरों के साथ अली सरदार जाफरी भी इस बँटवारे के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने अपने तईं इसका विरोध भी किया। नज्म ‘आंसुओं के चराग’ में वे अपने जज्बात को कुछ इस तरह से पेश करते हैं, ‘ये कौन जालिम है जिसने क़ानून के दहकते हुए कलम से/वतन के सीने पै खूने नाहक की एक गहरी लकीर खींची/यह क्या हुआ एक दम से महफिल में सारे साजों के राग बदले/कदामतों के खंडहर में माजी के भूत दीवानावार नाचे/बहार के सुर्ख आंचलों से खिजां के बीमार रंग बरसे।’

मशहूर शायर और दानिश्वर फिराक गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में अली सरदार जाफरी के अदब के बारे में तन्कीद की है,

‘अली सरदार जाफरी उन प्रगतिशीलों में से हैं, जिनकी राजनीतिक और सामाजिक चेतना उनकी काव्य चेतना के आगे चलती है। फिर भी उनकी काव्य-चेतना भी पूरे उभार पर होती है और वे एक क्षण के लिए भी ‘केवल प्रचारक’ नहीं होते।’

वहीं प्रगतिशील लेखक संघ के बानी सज्जाद जहीर का अली सरदार जाफरी के अदब के बारे में ख्याल है,

‘उनके लफ्ज साफ़ और ताक़तवर हैं, उनकी लय ऊँची और जोश से भरी हुई है, बिला शक उनकी शैली उपदेशकों-जैसी है, इसलिए कि वे जनसमूह में सुनाने के लिए भी कही गयी हैं। और यह उनकी ख़ूबी है, कमी नहीं। क्या मौलाना रूमी की मसनवी का, मीर अनीस के मरसियों का, इकबाल के शिकवे का, शेक्सपियर के नाटकों का अंदाज उपदेशकों-जैसा नहीं है? ये सब रचनाएँ भी जनसमूह को सुनाने के लिए कही गयी थीं, जाफरी की लंबी नज्में इसी विधा की हैं। इनमें सरलता, रवानगी और ईमानदारी है और वे सुननेवालों पर सीधा असर डालती हैं और कामयाब हैं।’

अली सरदार जाफरी का नाम, मुल्क की उन बवकार हस्तियों में भी शुमार होता है, जो हिंद-पाक दोस्ती के बड़े हामी थे और इस दोस्ती के लिए उन्होंने काम भी किया। पाकिस्तान में कई मर्तबा सद्भावना यात्राएँ करने के अलावा उन्होंने दोनों मुल्कों के सियासतदां और अवाम को आपस में मिलाने के लिए कोशिशें कीं। उनकी नज्म ‘गुफ्तगू’ इसी पसमंजर में लिखी गई है,

‘गुफ्तगू बंद न हो/बात से बात चले/सुबह तक शामे मुलाकात चले/हम पे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले/...हाथ में हाथ लिये सारा जहां साथ लिये/तोहफः-ए-दर्द लिये प्यार की सौगात लिये/रहगुजारों से अदावत के गुजर जाएंगे/खूं के दरयाओं से हम पार उतर जाएंगे।’ 

वहीं अपनी एक और नज्म ‘अहमद फराज के नाम’ में वह कहते हैं,

‘तुम्हारा हाथ बढ़ा है जो दोस्ती के लिए/मिरे लिए है वो इक यारे-गमगुसार का हाथ/वो हाथ शाखे-गुले-गुलशने-तमन्ना है/महक रहा है मिरे हाथ में बहार का हाथ/...करें ये अहद कि औजारे-जंग जितने हैं/उन्हें मिटाना है और खाक में मिलाना है/करें ये अहद् कि अर्बाबे-जंग हैं जितने/उन्हें शराफतो-इंसानियत सिखाना है।’

अली सरदार जाफरी ने अपने दौर की कुछ अजीम शख्सियतों पर भी नज्म लिखीं। ‘कार्ल मार्क्स’, पॉल रोबसन’, ‘परवीन शाकिर’, ‘अहमद फराज के नाम’ उनकी ऐसी ही कुछ नज़्में हैं।

‘परवाज’ (साल 1944), ‘जम्हूर’ (साल 1946), ‘नई दुनिया को सलाम’ (साल 1947), ‘ख़ून की लकीर’ (साल 1949), ‘अम्न का सितारा’ (साल 1950), ‘एशिया जाग उठा’ (साल 1950), ‘पत्थर की दीवार’ (साल 1953), ‘एक ख्वाब और’ (साल 1965), ‘पैराहने शरर’ (साल 1966), ‘लहू पुकारता है’ (साल 1978), ‘मेरा सफर’ (साल 1999) अली सरदार जाफरी के नज्मों-गजलों के अहम मजमुए हैं। साल 1947 में आई उनकी किताब ‘नई दुनिया को सलाम’ एक प्रबंध काव्य है, जो साम्राज्य-मुखालिफ जज्बात से लबरेज है। सच बात तो यह है कि ‘नई दुनिया को सलाम’ एक लंबी नज्म है और उनकी यह नज्म, आज़ादी के आंदोलन के दौरान लिखी गईं बेहतरीन नज्मों में शुमार होती है। यह नज्म उस दौर के शेरी सरमाये में एक आला मुकाम रखती है। अली सरदार जाफरी ने तरक्की पसंद तहरीक पर एक आलोचनात्मक किताब ‘तरक्की पसंद अदब’ लिखी तो ‘दीवाने-गालिब’, ‘दीवाने-मीर’ और ‘कबीर बानी’ वे किताबें हैं जिनमें गालिब, मीर की शायरी पर गंभीर बात है, तो ‘कबीर बानी’ में वे कबीर के 128 प्रमुख पदों का विचारोत्तेजक विश्लेषण करते हैं। ‘यह ख़ून किसका है’ और ‘पैकार’ सरदार जाफरी द्वारा लिखे गए नाटक हैं, वहीं किताब ‘मंजिल’ में उनकी कहानियाँ संकलित हैं। यह जानकर पाठकों को ताज्जुब होगा कि अली सरदार जाफरी के गजल, नज्म के मजमुए से पहले साल 1938 में उनके अफसानों की यह किताब ‘मंजिल’ आ चुकी थी। ‘पैगम्बराने-सुखन’, ‘तरक्की पसंद अदब’ ‘इकबाल शनासी’, ‘गालिब का सूफियाना खयाल’ अली सरदार जाफरी की आलोचनात्मक किताबें हैं।

अली सरदार जाफरी न सिर्फ़ एक बुलंद पाया शायर थे, बल्कि बहुत अच्छे गद्यकार थे। अफसोस!, आलोचकों ने उनके इस पहलू पर कम ही ध्यान दिया। ‘लखनऊ की पाँच रातें’ उनकी शाहकार किताब है। अफसानानिगार सलाम बिन रज्जाक ‘लखनऊ की पाँच रातें’ का तफ्सिरा करते हुए लिखते हैं,

‘लखनऊ की पाँच रातें’ उर्दू यादनिगारी में एक संगेमील की हैसियत रखती है। जिसमें जाफरी साहब ने मामूली बातों को भी अपने कलम के जादू से ग़ौर मामूली बना दिया है।’

सलाम बिन रज्जाक की यह बात सच भी है। जिन लोगों ने यह किताब पढ़ी है, वे इसका जादू जानते हैं। मिसाल के तौर पर किताब की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है,

‘मुझे इंसानी हाथ बड़े खूबसूरत मालूम होते हैं। उनकी जुम्बिश में तरन्नुम है और खामोशी में शायरी। उनकी उंगलियों से तखलीक की गंगा बहती है। ये वो फरिश्ते हैं, जो दिल व दिमाग के अर्शे-बरीं से वही-ओ-इलहाम लेकर कागज की हकीर सतह पर नाजिल होते हैं और उस पर अपने लाफानी नुकूश छोड़ जाते हैं। उन कागजों को दुनिया नज्म और अफसाना, मकाला और किताब कहकर आँखों से लगाती है और उनसे रूहानी तसकीन हासिल करती है।’

किताब के इसी अध्याय में वह आगे कहते हैं,

‘मैंने हमेशा कलम को हाथों का तकद्दुस, जेहन की अजमत और कल्बे-इंसानी की वुसअत समझा है और कलम के बनाए हुए नक्श को सजदा किया है। इसलिए जब कलम झूठ बोलता है, या चोरी करता है तो मुझे महसूस होता है, जैसे मेरे हाथ गंदे हो गए हैं। मैं हर अदीब से ये तवक्को करता हूं कि वह अपने कलम का एहतराम करेगा। क्योंकि उसके नफस की इज्जत और शराफत इसी तरह बरकरार रह सकती है।’ (किताब : लखनऊ की पांच रातें, पेज : 7)

सरदार जाफरी पत्रकार भी थे

अली सरदार जाफरी एक अदीब के साथ-साथ पत्रकार भी थे और उन्होंने जर्नलिज्म के फर्ज को भी अंजाम दिया। लखनऊ में उन्होंने मजाज और सिब्ते हसन के साथ मिलकर एक मैगज़ीन ‘नया अदब’, तो मुंबई में कम्युनिस्ट पार्टी का हफ्तेवार अख़बार ‘कौमी जंग’ और ‘नया जमाना’ का सज्जाद जहीर के साथ मिलकर सम्पादन किया। ‘नया अदब’ ऑफ़िशियल तौर पर प्रगतिशील लेखक संघ का मुख-पत्र नहीं था, लेकिन अनौपचारिक तौर पर यह मैगज़ीन तरक्की पसंद तहरीक की तर्जुमान बन गई। सज्जाद जहीर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, डॉ. अब्दुल अलीम, मजाज, मख्दूम मुहीउद्दीन, फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, इस्मत चुगताई, कृश्न चंदर वगैरह आला अदीबों की रचनाएँ इसमें छपती थीं। यही नहीं इसमें विदेशी प्रगतिशील साहित्य के अनुवाद भी छपते थे। ‘नया अदब’ के अलावा अली सरदार जाफरी ने अपने साथियों के साथ मिलकर उस वक़्त तरक्की पसंद अदब की किताबें छापने के लिए एक प्रकाशन संस्था ‘हल्का-ए-अदब’ भी बनाई। इसी प्रकाशन से उस जमाने में मजाज का एक मात्र काव्य संग्रह ‘आहंग’, सज्जाद जहीर का मक़बूल उपन्यास ‘लंदन की एक रात’, सिब्ते हसन द्वारा संपादित किताब ‘आज़ादी की नज्में’ और ख़ुद सरदार जाफरी का कहानी संग्रह ‘मंजिल’ प्रकाशित हुआ।

अली सरदार जाफरी की कई प्रमुख रचनाओं का दीगर हिंदुस्तानी जबानों समेत दुनिया की कई जबानों में तर्जुमा हुआ है। अली सरदार जाफरी एक हरफनमौला शख्सियत थे।

गजलों, नज्मों और आलोचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने वृतचित्र और धारावाहिकों का लेखन, निर्देशन भी किया। जिसमें ‘कबीर, इकबाल और आजादी’, ‘कहकशां’ और ‘महफिल-ए-यारां’ अहम हैं। कुछ फिल्मों के संवाद, पटकथा और गीत लिखे। देश के सांस्कृतिक राजदूत के तौर पर कई मुल्कों की यात्रा की। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय हस्तियों रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सत्यजीत राय, पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत, शोलोखोव, पास्तरनाक, लुई आरगां, एल्या एहरान, खु्रश्चेव और पॉल राब्सन से उनकी मुलाकात-सोहबत रही। अदब और इंसानियत की खिदमत के लिए अली सरदार जाफरी को अनेक बड़े सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। जिसमें कुछ खास सम्मान-पुरस्कार हैं ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ (साल 1997), ‘उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार’, साल 1983 में किताब ‘एशिया जाग उठा’ के लिए ‘कुमारन आसन अवार्ड’, ‘राष्ट्रीय इकबाल सम्मान’, ‘सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार’ (साल 1965), साल 1978 में पाकिस्तान सरकार द्वारा इकबाल गोल्ड मैडल सम्मान, अंतरराष्ट्रीय उर्दू अवार्ड, महाराष्ट्र सरकार द्वारा संत ध्यानेश्वर अवार्ड और साल 1999 में हावर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका द्वारा ‘अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार’ आदि। भारत सरकार ने साल 1967 में उन्हें अपने चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म श्री’ एजाज से भी नवाजा था।

अली सरदार जाफरी एक सच्चे इंसाफ पंसद और इंसान दोस्त शायर थे। उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में इंसानियत और भाईचारे की पैरोकारी की। उनकी शायरी इंसान-दोस्ती और इंसानियत की एक बेहतरीन मिसाल है। उनकी नज्में, गजल, तमाम मजामीन और तकरीरें हमारे दिल में एक नई उम्मीद जगाती हैं। मुस्तकबिल के लिए उनमें एक पैगाम है। इस अजीम शायर ने अपनी पूरी जिंदगानी मजलूम और मेहनतकश इंसानों के हक और इंसाफ की लड़ाई लड़ने में गुजार दी। उनके रंज-ओ-गम, समस्याओं को अपनी नज्मों-गज़लों में आवाज़ दी। 1 अगस्त, साल 2000 को अली सरदार जाफरी ने इस फानी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। आज भले ही सरदार जाफरी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी नज़्मों-गजलों में वह हमेशा ज़िंदा रहेंगे।
‘मैं सोता हूं और जागता हूं/और जाग कर फिर सो जाता हूं/सदियों का पुराना खेल हूं मैं/मैं मर के अमर हो जाता हूं।’
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जाहिद ख़ान
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