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भीमा कोरेगाँव: संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे पर कसा शिकंजा

हर साल की तरह इस बार भी 1 जनवरी के क़रीब आते ही भीमा कोरेगाँव में गतिविधियाँ तेज़ हो गयी हैं। यल्गार परिषद में शामिल होने वाले लोगों के ख़िलाफ़ दर्ज किए गए मामले वापस लेने तथा गिरफ्तार लोगों की रिहाई के लिए पूर्व न्यायाधीश बी. जी. कोलसे पाटिल के नेतृत्व में 27 दिसंबर को मुंबई के आज़ाद मैदान में आंदोलन शुरू किया जा रहा है। वहीं पुणे पुलिस ने इस मामले में मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिडे समेत 163 लोगों को नोटिस जारी किया है। संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के ज़िला प्रवेश पर भी पाबंदी लगा दी गई है। यह पाबंदी 1 जनवरी को भीमा-कोरेगाँव लड़ाई की 202वीं वर्षगाँठ और भीमा कोरेगाँव हिंसा की दूसरी वर्षगाँठ के सिलसिले में लगायी गयी है। इसको लेकर पुलिस ने कहा है कि ये क़दम सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के लिए उठाये गए हैं।

लेकिन सवाल है कि सुरक्षा और एहतियात के यही क़दम उस समय क्यों नहीं उठाये गए, जब 31 दिसंबर, 2017 को इस कार्यक्रम का 200वाँ विशेष जलसा था?

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भीमा कोरेगाँव जातीय संघर्ष की एक ऐसी घटना है जो दलित, पिछड़े, वंचित और सत्ता के केंद्र में रहने वाले उच्च समाज के बीच टकराव तक ही सीमित नहीं रही। इसने देश की राजनीति में उभर रही आंबेडकरी और वामपंथी विचारों के समन्वय की एक धारा को कुचलने का भी प्रयास किया। इसकी कोख से सत्ता ने अर्बन नक्सल जैसे शब्द को गढ़ा और देश में फैले मानवाधिकार, मज़दूरों-श्रमिकों और आदिवासियों के हितों की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को उसमें लपेटने का कार्य किया। गोदी मीडिया और प्रचार तंत्र के दम पर वैचारिक रूप से विरोध के स्वर को देशद्रोह की श्रेणी में खड़ा करने का प्रयास किया गया। लेकिन क्या सत्ता बदलती है तो क्या हमारे देश में जाँच एजेंसियों का किसी भी घटना के प्रति जाँच का नज़रिया बदल जाता है? या हमारे देश में सरकारें जाँच एजेंसियों को अपने एजेंडे के हिसाब से चलाने लगी हैं?

नयी सत्ता ने यह रुख तो साफ़ कर ही दिया है कि पिछली सरकार ने इस मामले में पुलिस का इस्तेमाल सामाजिक कार्यकर्ताओं को उलझाने में किया था और अब शरद पवार ने जाँच के लिए विशेष जाँच दल यानी एसआईटी के गठन की बात कही है। पूर्व मुख्यमंत्री इस माँग पर आज विरोध कर रहे हैं और इसका असर पुलिस के मनोबल पर पड़ने की बात कह रहे हैं। लेकिन शरद पवार की यह माँग नयी नहीं है। जिस दिन यह घटना हुई उस दिन भी उन्होंने इस बारे में ट्वीट किया था। 

बता दें कि 200 वें विशेष जलसे के जश्न के अगले ही दिन भीमा कोरेगाँव में हिंसा हुई थी। इसमें एक व्यक्ति की जान चली गई थी। मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े पर आरोप है कि उन्होंने भीमा कोरेगाँव में हिंसा भड़काई थी। इस मामले में पुणे की देहात पुलिस ने एकबोटे को गिरफ्तार किया था लेकिन अप्रैल 2018 में कुछ शर्तों पर अदालत ने उन्हें ज़मानत दे दी थी। इस साल जनवरी में मिलिंद एकबोटे पर लगाई गई पाबंदियाँ भी हटा ली गई थीं। लेकिन संभाजी भिड़े के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई हुई यह बात अभी तक सामने नज़र नहीं आयी और इसका शायद सबसे बड़ा कारण प्रदेश की पूर्व व वर्तमान केंद्र सरकार से उनके अच्छे रसूख हो सकता है। एक दलित महिला अनीता सावले द्वारा दर्ज शिकायत के बाद एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत एकबोटे को गिरफ़्तार किया गया था। 

हिंदुत्ववादी नेता संभाजी भिड़े की गिरफ्तारी नहीं की गयी जो कि उसी एफ़आईआर में सह-आरोपी हैं। पुलिस का कहना है कि भिड़े को सबूतों के अभाव की वजह से कभी गिरफ़्तार नहीं किया गया।

बता दें कि मनोहर भिड़े जो महाराष्ट्र में संभाजी गुरुजी के नाम से जाने जाते हैं की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सार्वजनिक रूप से तारीफ़ की है। वे हिंदुत्व के एक प्रखर नेता के रूप में जाने जाते हैं। हाल में जब महाराष्ट्र में सत्ता स्थापना को लेकर भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना में टकराव बढ़ा था तब भी उन्होंने दोनों दलों में मेल कराने का प्रयास किया था। वह वर्तमान मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मिलने उनके आवास मातोश्री पहुँच गए थे। लेकिन वहाँ उद्धव ठाकरे ने उनसे मुलाक़ात नहीं की। भिड़े, मातोश्री पर देवेंद्र फडणवीस का सन्देश लेकर गए थे।

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‘अर्बन नक्सल’ की कहानी

संभाजी भिड़े और भीमा कोरेगाँव को लेकर सरकार की तरफ़ से चल रही कवायद में एकाएक नया मोड़ उस समय आ गया था जब इस घटना के क़रीब आठ माह बाद पुणे पुलिस ने 31 दिसंबर 2017 को हुई यल्गार परिषद के सम्मेलन के बाद दर्ज की गई एक प्राथमिकी के सिलसिले में 28 अगस्त को तेलुगू कवि वरवरा राव, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फरेरा और वर्णन गोंसाल्विस, मज़दूर संघ कार्यकर्ता और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को पर रिपोर्ट दर्ज की गई। इन लोगों को नज़रबन्द किया गया था। बाद में गौतम नवलखा को छोड़ सभी को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने दावा किया था कि परिषद में 31 दिसंबर 2017 को दिये गये भड़काऊ भाषणों की वजह से अगले दिन पुणे जिले के भीमा-कोरेगाँव के आसपास जातीय हिंसा भड़की थी। बाद में पुलिस ने इसकी जाँच ‘अर्बन नक्सल’ के नज़रिये से करनी शुरू की। इस मामले के आरोपी गौतम नवलखा की गिरफ्तारी को लेकर भी पुलिस की कई बार अदालत में किरकिरी हो चुकी है।

वैसे, भीमा कोरेगाँव हिंसा प्रकरण में जाँच के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने फ़रवरी 2018 में कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे. एन. पटेल की अध्यक्षता में दो सदस्यीय जाँच आयोग भी बिठायी है लेकिन अभी तक उसकी रिपोर्ट भी नहीं आयी है। इस आयोग का कार्यकाल 8 नवम्बर 2019 को ख़त्म हो गया था। प्रदेश में उस समय सत्ता स्थापना का ड्रामा जोर पर था और गृह विभाग ने इसका कार्यकाल 8 फरवरी 2020 तक बढ़ा दिया।
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अब सरकार भिड़े की जाँच प्रक्रिया में तेज़ी लाएगी क्या? सबकी नज़रें इसी पर टिकी हुई है। वैसे, प्रदेश के राजनीतिक समीकरण को देखें तो शरद पवार यह दाँव खेल सकते हैं। भीमा कोरेगाँव प्रकरण के बाद प्रकाश आंबेडकर की राजनीति में नयी चमक आयी और उन्होंने वंचित आघाडी के नाम से गत लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के वोट बैंक में बड़ी सेंध लगायी है। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस फिर से उस दलित वोट बैंक को अपने साथ करने के लिए इस मामले में नए सिरे से जाँच कराने का क़दम उठाकर कर सकती है। इन दोनों चुनावों में कांग्रेस -राष्ट्रवादी कांग्रेस ने प्रकाश आंबेडकर की नयी पार्टी को भाजपा की बी टीम कहकर प्रचारित किया था। अब वे जाँच के आदेश देकर यह साबित करने की कोशिश करेंगे कि वे इस मामले में दलित समाज के साथ खड़े हैं।
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संजय राय
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