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बीएचयू: फ़िरोज़ का विरोध संस्कृत नहीं, ‘वर्ण-व्यवस्था’ बचाने के लिए!

बनारस सनातन धर्म में उदारता और कट्टरता का अखाड़ा हमेशा से ही रहा है। बीएचयू में फ़िरोज़ ख़ान को संस्कृत का असिस्टेंट प्रोफ़ेसर चुने जाने का विरोध हो रहा है। यहाँ पता चला कि धरने पर जो पोस्टर लगे हैं उनमें वर्णाश्रम धर्म को बचाने की बात लिखी गई है। यानी आंदोलनकारी छात्र संस्कृत नहीं ‘वर्ण-व्यवस्था’ को बचाने के लिए उतरे हैं। वे शिक्षक के लिए जिस योग्यता की माँग कर रहे हैं उसका सीधा अर्थ 'ब्राह्मण' है।
पंकज श्रीवास्तव

'सर्वविद्या की राजधानी' कहलाने वाली बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पद पर हुई फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति अब राष्ट्रव्यापी बहस का मुद्दा है। बीएचयू के छात्रों का एक समूह इसके विरोध में धरना दे रहा है जबकि प्रशासन इस नियुक्ति को पूरी तरह नियमसम्मत बता रहा है।

ज़ाहिर है, विरोध करने वाले छात्रों की जमकर लानत-मलामत हो रही है। सोशल मीडिया पर ‘सद्भाव के सिपाही’ भाषा और धर्म के अलग-अलग होने के उदाहरणों के तीर छोड़ रहे हैं। रसखान, रहीम से लेकर दारा शिकोह तक के हवाले दिए जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ़ इसे हिंदू धर्म के साथ खिलावड़ क़रार देने वालों की कमी नहीं है जो सवाल उठा रहे हैं कि एक मुसलिम कर्मकांड कैसे पढ़ाएगा? क्या किसी हिंदू से इसलाम की शिक्षा लेने के लिए मुसलिम तैयार होंगे? बेवजह इस बहस में घसीट लिए गए मुसलमान भी कह रहे हैं कि छात्रों की आपत्ति सही है। यहाँ तक कि अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. मुहम्मद शरीफ़ भी मानते हैं कि फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति में थोड़ी ‘चूक’ तो हुई है।

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तो क्या बीएचयू के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान विभाग के छात्र इतने मूढ़ हैं कि उन्हें पता नहीं है कि भाषा किसी धर्म से नत्थी नहीं होती? या फिर कुछ और कहना चाहते हैं जिसे सुना नहीं जा रहा है। बीबीसी के संवाददाता रजनीश कुमार से यूनिवर्सिटी के रुइया छात्रावास में इन आंदोलनकारी छात्रों ने जो कहा वह आँख खोलने वाला है। उत्तराखंड से बीएचयू पढ़ने गए अजय चमोली ने साफ़ कहा कि ‘यहाँ वही पढ़ा सकता है जो शिखा और जनेऊ धारण करे।’ चक्रपाणि नामक एक छात्र ने कहा कि ‘वेद वेदांग पढ़ने और पढ़ाने के लिए कुछ नियम उल्लेखित हैं। यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य है।’ वहीं एक अन्य छात्र ने कहा कि ‘वर्णाश्रम व्यवस्था को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश की जा रही है।’ इस परिचर्चा से यह भी पता चला कि धरने पर जो पोस्टर लगे हैं उनमें वर्णाश्रम धर्म को बचाने की बात लिखी गई है।

यानी आंदोलनकारी छात्र संस्कृत नहीं ‘वर्ण-व्यवस्था’ को बचाने के लिए उतरे हैं। वे शिक्षक के लिए जिस योग्यता की माँग कर रहे हैं उसका सीधा अर्थ 'ब्राह्मण' है। समतावादियों की नज़र में वर्ण-व्यवस्था भले ही मनुष्य को मनुष्य से नीचा बताने वाली अमानवीय व्यवस्था हो, लेकिन इन छात्रों की नज़र में यही धर्म का मूल है। 'हिंदुत्व' के सिद्धांतकार सावरकर भी कहते हैं कि मनुस्मृति ही 'हिंदू लॉ' है। 

फ़िरोज़ ख़ान के ख़िलाफ़ यह आंदोलन सांप्रदायिक कम जातिगत दुराग्रह ज़्यादा है। इस आंदोलन के ज़रिए वर्ण-व्यवस्था फुफकार रही है।

यह देखना दिलचस्प है कि बनारस में फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति के समर्थन में भी लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं। वैसे भी बनारस सनातन धर्म में उदारता और कट्टरता का अखाड़ा हमेशा से ही रहा है। इसी बनारस में रहते हुए कबीर ने वर्ण-व्यवस्था के पाखंड को लगातार चुनौती दी और अंत समय में ‘मोक्षनगरी’ को छोड़ मगहर चले गए। संत कवि रैदास इसी बनारस में बैठकर कहते रहे कि 'जात-जात में जात है, जस केलन के पात, रैदास न मानुष बन सके, जब तक जात न जात।' उनका जीवन और लेखन बताता है कि उन्हें कैसे विरोध का सामना करना पड़ा था। यहाँ तक कि पक्के सनातनी तुलसीदास को भी संस्कृत छोड़ अवधी में रामचरित मानस लिखने की वजह से काशी छोड़कर अयोध्या जाना पड़ा जहाँ उन्होंने लिखा कि 'माँग के खाइबो, मसीज में सोइबो' (यह बाबरी मसजिद तो नहीं थी!)। इस सिलसिले में मूर्ति पूजा विरोधी आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती भी जुड़ते हैं जिन्होंने बनारस के पंडितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी और भीषण विरोध झेला था।

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बुद्ध का धर्मचक्रप्रवर्तन काशी में क्यों नहीं?

क्या यह संयोग है कि 2600 साल पहले महात्मा बुद्ध ने धर्मचक्रप्रवर्तन काशी के गंगा तट पर नहीं, मृगदाय (सारनाथ) में किया था? काशी तब भी धर्मनगरी थी लेकिन बुद्ध की समतावादी शिक्षाओं और मध्यमार्ग के लिए शायद वातावरण नहीं था। अजीब तो यह भी लगता है कि बौद्ध धर्म पूरी दुनिया में फैल गया लेकिन काशी वाले इस बात से भी सदियों तक बेख़बर रहे कि बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सिर्फ़ दस किलोमीटर दूर हिरनों से भरे वन में दिया था। पर जिसे मिट्टी का टीला माना जाता था उसे लार्ड कनिंघम ने 1835 में खुदवाया और विश्व प्रसिद्ध धम्मेक समेत कुछ स्तूप और विहार दुनिया के सामने आया। इसी खुदाई में वह मशहूर चतुर्मुख सिंह स्तम्भ भी सामने आया जो आज भारत का राजचिन्ह है। बुद्ध की समस्त तेजस्विता को वर्णाश्रम की आँधी ने सदियों तक ढँके रखा था।

तो फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति के विरोध को सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए। धार्मिक कर्मकांड में उदारता नहीं खोजनी चाहिए। शास्त्रों में धर्म का अर्थ वर्णाश्रम ही है। खोजना हो तो यह ज़रूर खोजा जाना चाहिए कि इस छात्र आंदोलन के पीछे किस ‘गुरु की खोपड़ी’ है।

कुछ आंदोलित विद्यार्थी साफ़ तौर पर एबीवीपी से जुड़े होने की बात कर रहे हैं और आरएसएस के इस छात्र संगठन का मुखिया कोई शिक्षक ही होता है।

जहाँ तक नियुक्ति की बात है तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने साफ़ कर दिया है कि फ़िरोज़ ख़ान को हटाया नहीं जाएगा। इस विवाद में कई तरह की बातें वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी की भी देन हैं। वरना इस संकाय में वेद विभाग, व्याकरण विभाग, साहित्य विभाग, ज्योतिष विभाग, वैदिक दर्शन विभाग, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग और धर्मागम विभाग यानी 28 विभाग हैं जहाँ 23 विषयों का अध्ययन होता है। संकाय और विभाग में फ़र्क होता है और फ़िरोज़ ख़ान कर्मकांड नहीं संस्कृत साहित्य और व्याकरण पढ़ाने के लिए नियुक्त हुए हैं। ऐसा करने वाले वे पहले व्यक्ति नहीं होंगे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रो.किश्वर जबीं नसरीन और गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रो.अब्बास अली कुछ समय पहले तक संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी।

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