साल 2020 राम-राम करते बीत गया। एक ऐसा साल जिसे भूलना ही बेहतर होगा। पर क्या वाक़ई भुलाया जा सकेगा? शायद कभी नहीं। कुछ साल, कुछ दिन, कुछ तारीख़ें नहीं भूली जातीं। शायद इसीलिये वो इतिहास में दर्ज हो जाती हैं। कुछ परंपरा का हिस्सा बन के आगे इतिहास को नया मोड़ देती हैं तो कुछ एक ख़ौफ़नाक सपने की तरह रह-रहकर डराती हैं।

आज देश में आपातकाल लागू नहीं है। ऊपर से दिखता है कि देश संविधान से चल रहा है। पर हक़ीक़त कुछ और है। 2020 ने तय कर दिया है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की आस्था संविधान में नहीं है। वो अपने हिसाब से संविधान की व्याख्या करते हैं, सुविधानुसार उसे तोड़ते-मरोड़ते हैं और फिर अपनी तरह से उसका पालन करते हैं।
बीता साल एक बुरे सपने की तरह था। एक ऐसा साल जिसने मानव और विज्ञान की हेठी को तोड़ दिया। जिसने इंसान के अहंकार को चकनाचूर कर दिया। जिसने इंसान को इंसान से डरा दिया। तारीख़ें तो इतिहास में बहुत सी रहीं लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि पूरा विश्व एक साथ थम सा गया, दहशत की लकीरें दिल्ली से लेकर वाशिंगटन, टोक्यो से लेकर केपटाउन, लंदन से लेकर मेलबर्न तक साफ़ खिंची दिखीं।
लेकिन भारत में इस दौरान सिर्फ़ महामारी ने ही नहीं डराया बल्कि सत्ता में बैठे लोगों ने एक नई दहशत को जन्म दिया। दहशत, जो ये डर पैदा कर गयी कि हमारे समाज में ऊँचे पदों पर बैठे लोग किस कदर संविधान और क़ानून के शासन का सम्मान नहीं करते हैं।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।