यह 2015 का साल था जब नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसे लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या से दुखी, इन घटनाओं पर साहित्य अकादमी की चुप्पी से नाराज़ और गोरक्षा के नाम पर शुरू हुई मॉब लिंचिंग की प्रवृत्ति के साथ-साथ उसको मिल रहे सरकारी संरक्षण से स्तब्ध लेखकों ने अपने प्रतिरोध के तौर पर अपने पुरस्कार वापस करने शुरू किए। शुरुआत उदय प्रकाश ने की, फिर नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने पुरस्कार लौटाए और इसके बाद पुरस्कार वापस करने वालों का तांता लग गया। सरकार ने इसे अपनी किरकिरी की तरह देखा और तत्काल बीजेपी सरकार से जुड़े मंत्री और नेता ही नहीं, सरकार समर्थक लेखक-कलाकार भी इन लेखकों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ बताने लगे।
जो पुरस्कार के लिये अंडरटेकिंग दे वो रचनाकार नहीं हो सकता!
- विचार
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- 28 Jul, 2023

यदि अंग्रेज़ों के समय अंडरटेकिंग देने का ऐसा कोई क़ानून होता तो क्या गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जालियांवाला बाग के बाद ‘सर’ की उपाधि लौटा पाते? और क्या वह ऐसा अवार्ड ले भी पाते?
अब हमारा सत्ता-प्रतिष्ठान इस इंतज़ाम में लग गया है कि पुरस्कार वापसी का यह सिलसिला दुबारा कभी शुरू न हो सके। परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मामलों की संसदीय कमेटी ने सिफारिश की है कि आगे से किसी लेखक-कलाकार या अन्य शख्सियत को कोई सम्मान देने से पहले उससे यह लिखित गारंटी ले ली जाए कि वह अपना पुरस्कार किसी भी सूरत में वापस नहीं करेगा। सिफारिश में इस बात को भी याद किया गया है कि 2015 के दौरान 39 साहित्यकारों ने अपने साहित्य अकादेमी सम्मान वापस किए। कहा गया है कि इस तरह की सम्मान वापसी से सम्मान का भी अपमान होता है, दूसरे लेखकों का भी और देश का भी। इंडियन एक्सप्रेस में छपी इस खबर के मुताबिक संसदीय समिति के लगभग 20 सदस्यों में बस एक ने इस प्रस्ताव पर अपनी असहमति दर्ज कराई।