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पर्यावरण दिवस : बंजर होती ज़मीन, गहराता जल संकट और डरावना भविष्य

देश के अधिकतर हिस्सों में पीने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। ज़मीन बंजर होती जा रही है। प्रदूषण के कारण साँस लेना दूभर होता जा रहा है। इस पूरे बदलाव से कई प्रजातियाँ ग़ायब हो गई हैं। तो क्या एक दिन हम अपना अस्तित्व भी खो देंगे? कम से कम हाल की कई रिपोर्टों में तो इसके ख़तरे के संकेत मिले हैं। सबसे बड़ा ख़तरा तो यही है कि अनाज का संकट आने वाला है क्योंकि ज़मीन की जिस ऊपरी सतह पर अनाज उपजता है वह बर्बाद होने की कगार पर है। विश्व में कुल अनाज में से 95 प्रतिशत ज़मीन की ऊपरी सतह पर ही उपजते हैं। ज़मीन के बर्बाद होने से जल संकट भी भयावह हो जाएगा। इसका असर यह होगा कि बहुत बड़ी आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा।

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संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में 50 प्रतिशत से अधिक ज़मीन की ऊपरी सतह नष्ट हो चुकी है और यदि यही हाल रहा तो वर्ष 2075 तक पूरी ज़मीन की ऊपरी सतह ग़ायब हो चुकी होगी। इससे खाने-पीने की चीजों का उत्पादन प्रभावित होगा। ज़मीन बंजर हो जाएगी। ऐसा होने पर उस ज़मीन का कार्बन वायुमंडल में पहुँचेगा और फिर तापमान बढ़ेगा। कार्बन कम होने से ज़मीन में पानी की कमी भी होगी। बता दें कि ज़मीन में एक प्रतिशत कार्बन वृद्धि होने पर एक एकड़ भूमि में क़रीब 150 किलोलीटर अतिरिक्त पानी जमा होता है।

इंटर-गवर्नमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफ़ॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इको-सिस्टम सर्विसेज की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार ज़मीन की बर्बादी से कई प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं और जलवायु परिवर्तन में तेज़ी आ रही है। यह संस्था 129 देशों का समूह है और संयुक्त राष्ट्र की 4 संस्थाएँ- यूनेस्को, यूनेप, एफ़एओ और यूएनडीपी इसके पार्टनर हैं। इस रिपोर्ट को 45 देशों के 100 विशेषज्ञों ने तैयार किया है। 

रिपोर्ट के अनुसार ज़मीन के इस तरह तबाह होने से दुनिया की एक बड़ी जनसंख्या विस्थापित हो रही है यानी वे अपना घर-ज़मीन छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। इस कारण संघर्ष और युद्ध हो रहे हैं।

फ़िलहाल क़रीब 25 प्रतिशत ज़मीन ऐसी है जहाँ मानवीय गतिविधियाँ उतनी ज़्यादा नहीं हैं और यह ज़मीन बर्बाद नहीं हुई है। लेकिन वर्ष 2050 तक केवल 10 प्रतिशत ज़मीन ही ऐसी रह जाएगी। अभी दुनिया की कुल ज़मीन के एक-तिहाई से अधिक क्षेत्र में खेती-किसानी की जा रही है। वर्ष 2014 तक 1.5 अरब हेक्टेयर प्राकृतिक संपदा वाले क्षेत्र को खेती करने लायक क्षेत्र में बदल दिया गया है। यह सब इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है कि वैज्ञानिकों के अनुसार बड़ी संख्या में प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी। पिछले 300 वर्षों के दौरान 87 प्रतिशत से अधिक दलदली ज़मीन को नष्ट किया जा चुका है, इसमें से 54 प्रतिशत का विनाश तो पिछले 100 वर्षों के दौरान ही हुआ है। ज़मीन को तबाह करने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो अनुमान है कि 2050 तक 5 से 70 करोड़ के बीच आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा और फिर खानाबदोश का जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। दुनिया की क़रीब 75 प्रतिशत ज़मीन मरूभूमि, प्रदूषण, खेती के काम में आने और जंगलों के काटने से प्रभावित है, वर्ष 2050 तक 95 प्रतिशत ज़मीन इन प्रभावों की चपेट में होगी।

हर साल 120 लाख हेक्टेयर ज़मीन बर्बाद

दुनिया भर में ज़मीन के बंजर होने और मरूभूमि का विस्तार होने के कारण हर साल 120 लाख हेक्टेयर ज़मीन बेकार हो जाती है। इस कारण ज़मीन की उत्पादकता में गिरावट आई है और इससे एक अरब लोग, विशेष तौर पर सबसे ग़रीब, प्रभावित हो रहे हैं। मरूभूमि के विस्तार का एक प्रभाव धूल और रेत भरी आंधी है जिससे करोड़ों व्यक्ति प्रभावित हो रहे हैं। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र उत्तरी अफ़्रीका और पश्चिम एशिया हैं। धूल भरी आंधी से वायु प्रदूषण बढ़ता है जिससे 65 लाख व्यक्ति हर साल मरते हैं। भूमि की उत्पादकता गिरने से लोग पलायन कर रहे हैं। वर्तमान में 50 करोड़ हेक्टेयर भूमि, जो चीन के कुल क्षेत्र का लगभग आधा है, पूरी तरह से वीरान है। इसका कारण सूखा, मरूभूमि का विस्तार और भूमि का कुप्रबंधन है।

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देश में बढ़ रहा है बंजर ज़मीन का दायरा

ज़मीन के बंजर होने का देश में बड़ा असर पड़ रहा है। भारत सरकार के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर द्वारा 2016 में प्रकाशित ‘डेजर्टीफिकेशन एंड लैंड डिग्रेडेशन एटलस ऑफ़ इंडिया’ के अनुसार देश में ज़मीन के ख़राब होने और मरुभूमि का दायरा तेज़ी से बढ़ रहा है। वर्ष 2011 से 2013 के दौरान 9.64 करोड़ हेक्टेयर भूमि, यानी देश के कुल क्षेत्रफल का 29.32 प्रतिशत ज़मीन बेकार हो रही थी। 2011-2013 के दौरान 8.264 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन रेगिस्तान बनने की कगार पर थी। कुल बेकार हुई ज़मीन में से 24 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, झारखण्ड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में हैं। झारखण्ड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा के 80 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में ज़मीन बेकार हो रही है। केरल, असम, मिज़ोरम, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और अरुणाचल प्रदेश के 10 प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में यह समस्या है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान ज़मीन पर विभिन्न कारणों से अतिरिक्त बोझ पड़ा है, जिससे सतत विकास प्रभावित हो रहा है। भारत के संविधान के अनुसार भूमि का उपयोग, प्रबंधन और विकास राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है।

वर्ष 2030 तक हमारा देश सबसे अधिक जनसंख्या वाला हो जाएगा, तब ज़मीन की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता और भी कम हो जायेगी। जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे के मामले बढ़ रहे हैं। वन क्षेत्र को कृषि या औद्योगिक क्षेत्र में बदलाव के कारण जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रभावी कारक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ रहा है। शहरों के फैलने, उद्योंगों के बेतहाशा बढ़ने और कृषि में रसायनों के बढ़ते उपयोग के कारण ज़मीन पर प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। ज़हरीले कचरे के भंडारण और परिवहन, ज़हरीले गैसों के उत्सर्जन, मल-जल के उत्सर्जन, जल संसाधनों के प्रदूषण भी ज़मीन को प्रभावित कर रहे हैं। ज़मीन पर बढ़ते ख़तरे से जैव-विविधता प्रभावित हो रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2050 तक बहुत कुछ बदलने वाला है। जलवायु परिवर्तन के कारण आबादी का अभूतपूर्व विस्थापन होगा और बहुत सारे सागर तटीय क्षेत्र डूब चुके होंगे। पृथ्वी का एक बड़ा हिस्सा मरूभूमि बन चुका होगा। कुल मिलाकर इतना तो तय है कि दुनिया का नक्शा बदल चुका होगा। इसीलिए पूरे विश्व समुदाय को मिलकर इस समस्या पर ध्यान देना होगा तभी हम भविष्य के लिए तैयार हो सकेंगे।

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महेंद्र पाण्डेय
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