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चुनाव नतीजे: क्या धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए रास्ता बचा हुआ है? 

धर्मनिरपेक्षता को राजकीय तरीक़े से तभी लागू किया जा सकता है जब समाज में उस मूल्य को लेकर स्वीकृति हो। उसके लिए सबसे पहले विभिन्न धार्मिक और अन्य प्रकार के समुदायों के बीच हमदर्दी क़ायम करना ज़रूरी है। उनमें हर तरह का साझापन विकसित करते रहना आवश्यक है।
अपूर्वानंद

क्या रास्ता बचा हुआ है? और उसपर चलने को राही जो एक दूसरे के हमराह हों? पिछले हफ़्ते 5 राज्यों की नई विधान सभाओं के लिए हुए चुनावों के नतीजों की घोषणा के बाद धर्मनिरपेक्ष जन ख़ुद से यह सवाल कर रहे हैं। 

धर्मनिरपेक्ष जान बूझकर लिखा। इस शब्द को बार-बार लिखा जाना चाहिए ताकि जनस्मृति से यह ग़ायब न हो जाए। इस चुनाव के प्रचार में हमने असली हिंदूपन के खोज की बहुत चर्चा सुनी। लेकिन शायद ही किसी “धर्मनिरपेक्ष” राजनीतिक दल ने अपने मतदाताओं को कहा कि इस चुनाव का एक सवाल धर्मनिरपेक्षता की रक्षा भी है। 

लेकिन धर्मनिरपेक्षता के बिना भारतीय जनतंत्र बेमानी हो जाएगा, यह बारंबार कहने की ज़रूरत है।

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वैसे ही जैसे, और यह कुछ विषयांतर होने के बावजूद कहा जाना ज़रूरी है कि हिंदी लिखते वक्त उसमें उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल जानबूझकर किया जाना चाहिए। वह इसलिए कि हिंदी के शुद्धीकरण के अभियान के मायने उसे “विदेशी” प्रभावों से मुक्त करना है और अपने आस पड़ोस से काट देना है। हिंदी में उसका सहज साझापन क़ायम रखने के लिए अब सोच समझकर कोशिश करते रहने की ज़रूरत होगी।

हम अपने सवाल पर लौट आएँ। क्या धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए रास्ता बचा हुआ है? तब जब योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में वापस सत्ता में लाई गई है और उसके साथ उसने 3 राज्य, मणिपुर, गोवा और उत्तराखंड फिर से और फ़ैसलाकुन तरीक़े से वापस हासिल कर लिए हैं? रास्ता और राही, हमराही कहाँ हैं? या निराशा ही निराशा है?

धर्मनिरपेक्षता से हमारा अभी आशय क्या है, वह साफ़ किया जाना चाहिए। सबसे पहले तो मुसलमानों और ईसाइयों के अधिकारों की रक्षा और उनको सम्मान। उनके जीवन के अधिकार की रक्षा और भारत के लोगों के रूप में उनके लिए समान अधिकारों की गारंटी। उनके ख़िलाफ़ हिंसा और भेदभाव का ख़ात्मा। फिर बहुसंख्यकवादी हिंदू दबाव से भारतीय जीवन के हर पक्ष को आज़ाद करना। अल्पसंख्यकों को बराबरी और इंसाफ़ मिल सके, इसके लिए राज्य की संस्थाओं को प्रतिबद्ध करना।

धर्मनिरपेक्षता को राजकीय तरीक़े से तभी लागू किया जा सकता है जब समाज में उस मूल्य को लेकर स्वीकृति हो। उसके लिए सबसे पहले विभिन्न धार्मिक और अन्य प्रकार के समुदायों के बीच हमदर्दी क़ायम करना ज़रूरी है। उनमें हर तरह का साझापन विकसित करते रहना आवश्यक है।

सामाजिक स्तर पर धर्मनिरपेक्षता की पूर्ण स्वीकृति तक राजकीय धर्मनिरपेक्षता को स्थगित नहीं किया जा सकता। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका सामाजिक पूर्वग्रहों के दबाव का प्रतिरोध संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्था के आधार पर करती रह सकें, यह आवश्यक है।

ऐसे क़ानून न बनें जो अल्पसंख्यक समुदायों का जीवन और मुश्किल कर दें, इसे कैसे निश्चित किया जा सकेगा? यह प्रश्न नई विधान सभाओं के गठन के बाद और भी मुखर हो उठा है? ऐसी विधान सभाएँ जिनमें भाजपा को पूर्ण बहुमत है जिसके बल पर वे वैसे क़ानून बनाना जारी रख सकती हैं जो अल्पसंख्यक समुदायों को और शक्तिहीन कर दें। पिछली विधान सभाओं ने धार्मिक स्वतंत्रता का नाम लेकर उसी का गला घोंट देनेवाले क़ानून, मुसलमान पुरुषों को प्रताड़ित करने के लिए तीन तलाक़ और अंतरधार्मिक संबंधों को आपराधिक बना देने जैसे क़ानून बनाए हैं। 

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उत्तराखंड में मुसलमान ज़मीन न ख़रीद सकें, ऐसे क़ानून बनाने की धमकी भाजपा नेता चुनाव प्रचार के दौरान दे चुके हैं।

इस बात को नज़रंदाज़ करना ख़तरनाक होगा कि चुनाव नतीजों के फ़ौरन बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सरकारी तंत्र में मुसलमानों के प्रवेश के षड्यंत्र का उल्लेख किया है। क्या यह राजकीय तंत्र को इशारा है?

धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी, विरोध का अधिकार प्राणवायु है। क्या नई सरकारें इसे और सीमित करने के लिए क़ानून बनाएँगी?

क्या इस बहुसंख्यकवादी जनादेश का सामना न्यायालय कर पाएँगे? क्या वे ऐसे क़ानूनों का और सरकारी फ़ैसलों की समीक्षा कर पाएँगे जो संविधानसम्मत नहीं हैं या उसके ख़िलाफ़ हैं?
क्या इसके लिए जगह बची हुई है विधायिका में और समाज में? नतीजों का विश्लेषण करते हुए सिद्धार्थ वरदराजन, राजेश महापात्रा, मुकुल केसवन जैसे लेखकों ने या अलीशान जाफ़री जैसे पत्रकार ने निराशा से सावधान किया है। अलीशान ने नतीजों के तुरंत बाद ध्यान दिलाया था कि उत्तर प्रदेश में सभी भाजपा प्रत्याशी पराजित हुए जिन्होंने मुज़फ़्फ़रनगर हिंसा भड़काने में भूमिका अदा की थी। जिस कैराना से हिंदुओं के पलायन का झूठ अमित शाह और भाजपा फैलाती रही, वहाँ से भी भाजपा हारी। इसका अर्थ यह है कि समाज में, और इसे और खोलकर कहें तो हिंदुओं में बहुसंख्यकवाद से वितृष्णा है। और वह राजनीतिक फ़ैसले में दीखती है। 

सिद्धार्थ और बाद में मुकुल ने लिखा कि आदित्यनाथ की समाज को 80-20 में बाँटने की धमकी धमकी ही रह गई है। अभी भी कम से कम 55% जनता भाजपा की राजनीति के ख़िलाफ़ है। समाजवादी पार्टी ने इतनी जगहें हासिल की हैं कि इस 55% की आवाज़ कमजोर न पड़े।

यानी समाज में अभी भी संसाधन हैं जिनकी मदद से धर्मनिरपेक्ष राजनीति न सिर्फ़ जीवित बल्कि जीवंत बनी रह सकती है। मुकुल और उनकी तरह के ढेर सारे लोग पंजाब में आम आदमी पार्टी की भारी जीत को भी कुशल प्रशासन की जन आकांक्षा का प्रमाण मानते हैं। आप के संदिग्ध रिकार्ड के बावजूद वे उसे भाजपा से काम ख़तरनाक मानते हैं। उनकी समझ है कि वह भी भाजपा के बहुसंख्यकवाद के विरोध की राजनीति में सहायता करेगी। उनकी राय से सहमत हुए बिना उनकी इस उम्मीद के साथ रहा जा सकता है।

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प्रायः सभी कांग्रेस से आशा छोड़ बैठे हैं। लेकिन चुनाव की तैयारी के समय जो लोग कांग्रेस के समर्थन में सड़क पर थे वे ख़याल नहीं हक़ीक़त थे। भले ही वह समर्थन फ़ौरी वजहों से वोट में न तब्दील हुआ, आगे वह कांग्रेस को अपनी धर्मनिरपेक्ष राजनीति की राह पर चलने के लिए पर्याप्त प्रेरणा और सहारा है।

आगे के बरसों की राजनीति असहमति और प्रतिरोध की ही हो सकती है। यही सकारात्मक रवैया भी है। उत्तर प्रदेश विधान सभा में मुसलमान विधायकों की संख्या बढ़ी है। इन्हें भीतर और बाहर मुखर , और मुखर होना होगा और इस जनतंत्र पर अपनी दावेदारी ज़ोरों से पेश करनी होगी।

निराशा की सुविधा अभी नहीं है। इस जनादेश का एक अर्थ यह भी है।

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