द्रौपदी मुर्मू का एनडीए की उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति चुनाव में चुना जाना क्या सामाजिक न्याय की राजनीति की जीत है? पिछले तीन दशकों में अस्मिता आधारित जिस सामाजिक न्याय की राजनीति ने भारत की राजनीतिक भाषा को बदल दिया, क्या उसी ने भारतीय जनता पार्टी को बाध्य कर दिया कि वह एक आदिवासी महिला को भारत के सर्वोच्च पद के लिए चुने?
द्रौपदी मुर्मू की विजय: क्या सामाजिक न्याय की राजनीति की जीत है?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 25 Jul, 2022

सामाजिक न्याय की राजनीति अपनी इस अपराजेयता को लेकर इस कदर निश्चिंत थी कि उसने राजनीति को मात्र प्रतिनिधित्व के प्रश्न तक सीमित कर दिया। इस राजनीति के पास सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तन का कोई कार्यक्रम या सपना नहीं था। यह एक नए सामाजिक समीकरण के निर्माण और उसके संतुलन को हासिल करने मात्र से संतुष्ट थी।
आख़िरकार भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा ही तो है और संघ पुरुषवादी ब्राह्मणवादी वर्चस्व का पोषक है, यह आम समझ हम जैसे लोगों की रही है। फिर उसने द्रौपदी मुर्मू को कैसे चुना? क्या अब संघ समावेशी और प्रगतिशील हो गया है?
या द्रौपदी मुर्मू की यह जीत सामाजिक न्याय की राजनीति की आख़िरी पराजय की घोषणा है? उसकी सारी संभावनाओं के चुक जाने का संकेत? क्या यह चुनाव सामाजिक न्याय की राजनीति के चक्र के पूरा घूम जाने की सूचना है?
एक समझ यह है कि भाजपा या संघ ने सामाजिक न्याय का जाप करनेवाली पार्टियों को उन्हीं के मैदान में पछाड़ दिया है।