देश का पूरा ध्यान एक अभूतपूर्व संकट से सफलतापूर्वक भटका दिया गया है। मीडिया को आम आदमी के मुद्दे पर बात करनी चाहिए लेकिन यह उसके एजेंडे से पूरी तरह ग़ायब है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में जो बाइडन अभी ओपिनियन पोल में राष्ट्रपति ट्रम्प से आगे हैं, लेकिन हिंसक घटनाएँ इस चुनाव के नतीजों को मोड़ सकती हैं। विश्लेषकों का मानना है कि सड़कों पर हिंसा जितनी बढ़ती जाएगी, मतदाता ट्रम्प की वापसी के पक्ष में बढ़ते जाएँगे।
बहस का विषय इस समय यह है कि प्रशांत भूषण अगर अपने आपको वास्तव में निर्दोष मानते हैं तो उन्हें बजाय एक रुपये का जुर्माना भरने के क्या तीन महीने का कारावास नहीं स्वीकार कर लेना चाहिए था?
बीजेपी की गंगा में एक तरफ़ तो कांग्रेसी विचारधारा की नहरों का पानी मिल रहा है और दूसरी तरफ़ मंत्रालयों का काम काज नेताओं की जगह सेवानिवृत नौकरशाहों के हवाले हो रहा है।
विकास दुबे तो एक ऐसा बड़ा अपराधी था जिसे अपने अपराधों के लिए संवैधानिक न्याय प्रक्रिया के तहत मौत जैसी सजा मिलनी ही चाहिए थी। पर सवाल यह है कि पिछले तीन दशकों के बाद भी क्या पुलिस व्यवस्था में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है?
ट्रम्प तो किसी की सलाह की परवाह नहीं करते पर हमारे प्रधानमंत्री को तो कोई बताता ही होगा कि उनके कट्टर समर्थकों के अलावा भी देश में जो जनता है वह उनकी छवि को लेकर इस समय क्या सोच रही है!
अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाने की कोशिशों की आलोचना करने पर अमोल पालेकर को रोका गया था। आपातकाल की शुरुआत ऐसे ही होती है। उसे रोकने के लिए बोलते रहना ज़रूरी है।
45 साल पहले आपातकाल के दौरान जब जेपी का नज़रबंदी आदेश निकला था तब प्रेस में खलबली मची थी। प्रेस सेंसरशिप भी लागू हो चुकी थी। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है।
भारत चीन सीमा विवाद के बीच गलवान पर मोदी का बयान देश के लिए बड़ा झटका है। क्या प्रधानमंत्री के केवल एक वक्तव्य ने ही देश को बिना कोई ज़मीनी युद्ध लड़े मनोवैज्ञानिक रूप से हरा नहीं दिया है?
क्या भारत में ऐसा सम्भव है या कभी हो सकेगा कि राष्ट्रपति भवन या प्रधानमंत्री आवास के आसपास या कहीं दूर से भी गुजरने वाली सड़क को करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के जीवन के नाम पर कर दिया जाए?
मैं ‘सम्पूर्ण क्रांति दिवस’ 5 जून 1974 के उस ऐतिहासिक दृश्य का स्मरण कर रहा हूँ जो पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान में उपस्थित हुआ था और मैं जयप्रकाशजी के साथ मंच के निकट से ही उस क्रांति की शुरुआत देख रहा था।
कोरोना के कारण सबसे ज़्यादा मौतें अमेरिकी अस्पतालों में हुई हैं पर देश के एक शहर में पुलिस के हाथों हुई एक अश्वेत नागरिक की मौत ने सभी पश्चिमी राष्ट्रों की सत्ताओं के होश उड़ा रखे हैं।
देश जब दिक्कतों का सामना कर रहा हो, जनता या तो घरों में बंद हो या सड़कों पर पैदल चल रही हो, आपदा प्रबंधन के तहत सारी शक्तियाँ कुछ व्यक्ति-समूहों में केंद्रित हो गई हों, उस स्थिति में अदालतों, विपक्ष और मीडिया को क्या काम करने चाहिए?