पत्रकार अरुण पांडेय नहीं रहे। वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव लिखते हैं- सुबह से फ़ेसबुक पर शोक की एक नदी बह रही है जिसके हर क़तरे पर एक नाम है- अरुण पांडेय।
पत्रकार रोहित सरदाना का शुक्रवार को निधन हो गया। राणा यशवंत लिखते हैं- बहुत तकलीफ है। बहुत। और बहुत डर भी लग रहा है। बहुत। तकलीफ इसलिए कि एक खुशदिल, बेहतरीन, बेहद सफल और नौजवान दोस्त ऐसे झटके से निकल गया!
बनारसी गायकी का एक नक्षत्र टूटा गया। राजन जी उसी अनन्त में चले गए जहॉँ से संगीत के सात सुर निकले थे। जोड़ी टूट गयी। अब साजन जी का स्वर अधूरा रह जायगा। राजन साजन मिश्र की इस जोड़ी ने बनारस के कबीर चौरा से निकल कर दुनिया में ख़्याल गायकी का परचम लहराया।
डॉ. रमेश उपाध्याय, महानतम जनवादी लेखकों में से एक, विचारक, हरदिल-अज़ीज उस्ताद, बुद्धिजीवी, का 23-24 अप्रैल को रात लगभग 1. 30 बजे देहांत हो गया। लेखक शमसुल इसलाम की श्रद्धांजलि।
इंटरनेट के इस दौर में उत्तर प्रदेश की एक मशहूर और दिग्गज पत्रकार ताविषी श्रीवास्तव की मैं फोटो तलाश रहा था, पर नहीं मिली। इससे पता चलता है कि वह कितनी लो- प्रोफाइल रहती थी।
हमेशा हंसती रहने और कभी किसी बात का बुरा न मानें वाली ताविषी के साथ न जाने कितनी यात्राएँ कीं। कितने पत्रकारीय अभियान छेड़े। आज भी जब लखनऊ जाता सबसे पहले मिलने आतीं। उनका कोई शत्रु नहीं था।... पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा को।
नरेंद्र कोहली बहुत शालीन व्यक्ति थे- लेखक के तौर पर मिली अपनी प्रसिद्धि से बहुत अभिभूत भी नज़र नहीं आते थे। बेशक, अंग्रेज़ी में होते तो शायद अमिष त्रिपाठी या चेतन भगत जैसी शोहरत उनके हिस्से भी होती।
हिंदी रंगकर्म का आकार जब निरंतर संकुचित होता जा रहा है और ज़रूरत उसके भीतर लोक नाट्य के नए-नए तत्वों और विचारों के समावेश की है, तब बंसी कौल का चले जाना एक वटवृक्ष के ढह जाने के समान है।
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 25 दिसम्बर को इस फानी दुनिया से जुदा हो गए। वे काफी लंबे समय से बीमार चल रहे थे। 30 सितंबर 1935 को उत्तर प्रदेश में जन्मे फ़ारुक़ी को 'सरस्वती सम्मान, 'पद्म श्री' समेत कई बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया था।
कांग्रेस के नेता श्री मोतीलाल वोरा का 20 दिसंबर को 93वाँ जन्म दिन था और 21 दिसंबर को उनका निधन हो गया। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री नहीं बने थे फिर भी लगभग सभी राजनीतिक दलों ने उनके महाप्रयाण पर शोक व्यक्त किया।
भाषा के मामले में मंगलेशजी का जोड़ नहीं था। चूँकि वे मूल रूप से कवि थे इसलिए उनका गद्य इतना ललित और प्रवाहमान होता कि उसे समझने में कभी किसी को कोई दिक़्क़त नहीं होती।
मंगलेश डबराल के यहाँ स्मृति की केंद्रीय उपस्थिति है। उनका पहला काव्य संकलन ‘पहाड़ पर लालटेन’ भी उस कवि और व्यक्ति का अपनी स्मृति को बचाए और बनाए रखने की जद्दोजहद है जो पहाड़ से उतर कर मैदान में आया है।