हम जो कुछ भी इस समय अपने ईर्द-गिर्द घटता हुआ देख रहे हैं उसमें नया बहुत कम है, शासकों के अलावा। केवल सरकारें ही बदलती जा रही हैं, बाक़ी सब कुछ लगभग वैसा ही है जो पहले किसी समय था। लोगों की तकलीफ़ें, उनके दर्द और इस सबके प्रति एक बेहद ही क्रूर उदासीनता केवल इसी ज़माने की कोई नयी चीज़ नहीं है। फ़र्क़ केवल इतना है कि हरेक ऐसे संकट के बाद व्यवस्थाओं के कपड़े और ज़्यादा फटे हुए नज़र आने लगते हैं। कहीं भी बदलता बहुत कुछ नहीं है।