आंदोलनकारी किसानों ने आखिरकार केंद्र सरकार का प्रस्ताव ठुकरा कर आंदोलन को और तेज करने का फैसला किया है। इसके बाद बातचीत के दरवाजे बंद हो गए हैं। अब एक बात साफ हो गई है कि यह आंदोलन कुछ दलों के हाथों की कठपुतली बन गया है, क्योंकि लक्ष्य किसानों की भलाई नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वार्थ है।
किसानों का अड़ियल रवैया, मोदी सरकार की मुश्किल
- विचार
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- 13 Dec, 2020

यदि आंदोलित किसानों की कृषि कानून रद्द करने की मांग मान ली गई तो समझ लीजिए कि कोई भी सरकार कृषि सुधारों की दिशा में कदम नहीं बढ़ाएगी। कृषि में निजी निवेश को भूल जाना होगा। देश के कुल किसानों में 86 प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसानों की आमदनी बढ़ाने के सभी दरवाजे बंद हो जाएंगे। धान और गन्ने की खेती वाले इलाकों में पानी का अकाल होगा और उसके लिए दंगे होंगे।
अब सरकार के सामने दो विकल्प हैं। एक, आत्मसमर्पण कर दे। दूसरा, अब राजनीतिक हो चुकी इस लड़ाई का राजनीतिक जवाब दे। यह सीएए-दो का पड़ाव है। किसी भी सत्तारूढ़ दल और उसके मुखिया को जनभावना के सामने झुकने में संकोच नहीं करना चाहिए। आखिरकार इसी जनभावना के चलते उसे सत्ता हासिल हुई है। साथ ही नेता को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जनभावना के नाम पर एक तबके की खातिर सार्वजनिक हितों पर आघात भी न हो।
प्रदीप सिंह देश के जाने माने पत्रकार हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है। आरएसएस और बीजेपी पर काफी बारीक समझ रखते हैं।