loader

संसद में बने कृषि क़ानून क्या सड़क पर रद्द किए जाएँगे?

देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसान आंदोलन को क्या जारी रहना चाहिए? क्या संसद में बने क़ानून को सड़क पर रद्द किया जाएगा? यह आंदोलन केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि भारत में संवैधानिक जनतंत्र के ख़िलाफ़ है। किसान तो बहाना हैं। यह आंदोलन भारतीय राष्ट्र राज्य को कमज़ोर करने की दिशा में बढ़ गया है।
प्रदीप सिंह

देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन का अब किसानों से कोई ताल्लुक नहीं रह गया है। क्योंकि कोई भी आंदोलन किसी समस्या का समाधान खोजने के लिए होता है। समाधान का रास्ता संवाद से निकलता है। आंदोलनकारी न तो समाधान चाहते हैं और न ही संवाद। यह एक प्रयोग हो रहा है जो सफल हो गया तो भारत में जनतंत्र को कमज़ोर करने का साधन बनेगा। 

यह आंदोलन इस बात की मुनादी है कि अब इस देश में क़ानून संसद में भले बन जाएँ लेकिन उन्हें सड़क पर रद्द किया जाएगा। इस आंदोलन के समर्थक आग से खेल रहे हैं। जो राजनीतिक दल साथ हैं वे उसी हाथ (जनतंत्र और संविधान का राज) को काटना चाहते हैं जो उन्हें खिला (राजनीतिक अवसर) रहा है।

ख़ास ख़बरें

आम्बेडकर की चेतावनी

डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने पच्चीस नवम्बर, 1949 को संविधानसभा में अपने आख़िरी भाषण में देशवासियों को तीन चेतावनियाँ देते हुए कहा था कि इन पर ध्यान नहीं दिया गया तो जनतंत्र ख़तरे में पड़ सकता है। उनमें से पहली चेतावनी का ज़िक्र यहाँ प्रासंगिक होगा। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में हमने आंदोलन के जिन हिंसक, अहिंसक तरीक़ों का इस्तेमाल किया वह अब बंद हो जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब हमें अपनी समस्याओं के हल के लिए संवैधानिक उपाय (भारत का संविधान) मिल रहा है तो इनकी कोई ज़रूरत नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि गांधीवादी सत्याग्रह का इस्तेमाल भी बंद होना चाहिए।

तीन विकल्प

संवैधानिक जनतंत्र में सरकार के किसी फ़ैसले, क़ानून या आदेश से किसी व्यक्ति या समूह को एतराज़, दिक़्क़त हो तो उसके सामने तीन विकल्प हैं। एक, वह सरकार से बात करे। बताए कि क़ानून के किन प्रावधानों से उन्हें परेशानी, संदेह या भ्रम है। सरकार का दायित्व है कि उनसे बात करे और उनकी शंकाओं और संदेहों को दूर करे। सरकार ऐसा नहीं करती तो उनके पास दूसरा विकल्प है, अदालत। संसद से पास क़ानून को देश के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। न्यायालय का फ़ैसला सबको मान्य होना चाहिए। पर ऐसा भी संभव है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से हम संतुष्ट न हों। यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। ऐसे में हमारे सामने तीसरा विकल्प है। 

जो जनतांत्रिक व्यवस्था का सबसे मज़बूत हथियार है। वह है वोट। चुनाव के समय वोट देकर ऐसी सरकार को सत्ता से हटा सकते हैं। सड़कें जाम करके, आर्थिक गतिविधियाँ रोककर सरकार को ब्लैकमेल करने का रास्ता जनतंत्र का रास्ता नहीं हो सकता।

किसान संगठनों की रुचि

इस आंदोलन के एक महीने के वक्फे पर ग़ौर करें तो दो बातें साफ़ नज़र आती हैं। एक सरकार इस बात के लिए तत्पर है कि किसानों की आशंकाओं, भ्रमों और ऐतराज़ों का समाधान निकाले। किसान संगठनों की रुचि बातचीत में कम मामले को उलझाए रखकर आम लोगों और सरकार को परेशानी में डालने में ज़्यादा नज़र आ रही है। किसान संगठनों की मंशा संसद से बने क़ानून को सड़क पर बदलने की दिख रही है। अब बातचीत के लिए भी उनकी पहली शर्त है कि सरकार क़ानून वापस ले। इस तरह की मांग विरोधी राजनीतिक दल की तो शायद हो सकती है लेकिन किसानों की नहीं। ये संगठन यदि किसानों के हित के लिए लड़ रहे होते तो उनके हित में सरकार पर फ़ैसले का दबाव डालते। पर इनका एजेंडा तो राजनीतिक है।

is farmer protest against farm laws justified  - Satya Hindi

क़ानून का विरोध करने वालों के तर्क

सरकार इनके दबाव में यदि इस मांग को स्वीकार कर लेती है तो उसके बाद देश को अराजकता की ओर जाने से कोई रोक नहीं सकता। जरा कल्पना कीजिए कल को संसद कोई और क़ानून पास करेगी और पचास हज़ार, एक लाख लोग देश की राजधानी को घेर लेंगे और उसे रद्द करने की मांग करेंगे। फिर यह सिलसिला कहाँ रुकेगा। इस क़ानून का विरोध करने वालों के तर्क देखिए। कहा जा रहा है कि क़ानून बनाने से पहले सरकार को व्यापक विचार विमर्श करना चाहिए था। ज़्यादा पुरानी बात छोड़ भी दें तो इन क़ानूनों के बारे में साल 2003 से संसद से सड़क तक चर्चा हो रही थी। तीन-तीन सरकारें, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेन्द्र मोदी की सरकार इस पर चर्चा कर चुकी है। राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणा पत्र में इसे शामिल कर चुके हैं। शांता कुमार कमेटी और स्वामीनाथ आयोग वृहत चर्चा के बाद अपनी संस्तुति दे चुका है। इन क़ानूनों से सम्बन्धित विधेयकों पर संसद के दोनों सदन विचार करके इसे मंजूरी दे चुके हैं। किसी जनतांत्रिक देश में क़ानून बनाने के लिए इसके अलावा और क्या तरीक़ा हो सकता है।

नये क़ानून और आंदोलनकारियों के मुद्दे

आंदोलनकारियों के दो बड़े मुद्दे हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और मंडियों की व्यवस्था। हद तो यह है कि तीनों नये कृषि क़ानूनों से इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यानी तीनों क़ानून इनके बारे में हैं ही नहीं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शेर है- ‘वो बात सारे फसाने में जिसका ज़िक्र न था, वो बात उनको बहुत ना-गवार गुज़री है।’ अब सरकार कह रही है कि वह लिखकर देने को तैयार है कि एमएसपी जारी रहेगी। हालाँकि जिसमें थोड़ी भी समझ होगी उसे समझने में देर नहीं लगेगी कि सरकार एमएसपी को ख़त्म नहीं कर सकती। क्योंकि केंद्र सरकार को चार करोड़ टन अनाज पीडीएस से वितरण के लिए, दो करोड़ टन सेना और सुरक्षा बलों और एक करोड़ टन मिड-डे मील के लिए खरीदना ही है। मंडियों की जहाँ तक बात है तो सरकार इसे ख़त्म करने की बजाय और मज़बूत कर रही है।

वीडियो चर्चा में देखिए, किसानों का सरकार पर भरोसा क्यों नहीं? 

छोटे किसानों के लिए नया आकाश

नये क़ानून किसानों और ख़ासतौर से छोटे किसानों, जो नब्बे फ़ीसदी से ज़्यादा हैं, के लिए नया आकाश खोलते हैं। इन छोटे किसानों के पास औसतन एक हेक्टेयर ज़मीन है। इतनी कम ज़मीन पर खेती लाभप्रद नहीं हो सकती। उसका समाधान है किसान उपज संगठन (एफपीओ)। सरकार ने इन क़ानूनों के साथ ही देश में ऐसे दस हज़ार संगठन बनाने की घोषणा की है। ये कैसे छोटे किसान के लिए लाभप्रद हो सकते हैं इसका जीता जागता उदाहरण प्रधानमंत्री से संवाद में उत्तर प्रदेश के महाराजगंज ज़िले के किसान राम गुलाब ने दिया। उनके पास क़रीब डेढ़ एकड़ ज़मीन है। उन्होंने कुछ किसानों के साथ मिलकर ऐसा ही संगठन बनाया। पहले सौ किसान थे अब तीन सौ छोटे किसान साथ हैं। वे शकरकंदी की एक विशेष क़िस्म की खेती करते हैं। उन्होंने बताया कि जो शकरकंदी पहले वह बारह से पंद्रह रुपए किलो में बेच पाते थे। अब निजी कंपनी पच्चीस रुपए में ख़रीद रही है। किसानों को प्रति एकड़ एक लाख रुपए की कमाई हो रही है। यह भी कि उनकी फ़सल उनके खेत से ही चली जाती है। नया क़ानून कई राज्यों में चल रही इस व्यवस्था को क़ानूनी कवच प्रदान कर रहा है।

किसानों को दिखाए जा रहे डर

किसानों को दो डर दिखाए जा रहे हैं। एक, ये बड़ी कंपनियाँ आएँगी तो किसान का शोषण करेंगी और उनको अपनी उपज की पहले से भी कम क़ीमत देंगी। जो ऐसा कहते हैं उनके मन में दो विकृतियाँ हैं। एक निजी कंपनियाँ या कारपोरेट घराने चोर होते हैं और वे किसानों को लूटने के लिए घात लगाए बैठे हैं। दूसरी विकृति इन कंपनियों की रुचि व्यापार करने में नहीं किसान को लूटने में है। मतलब अपने व्यापारिक हित के ख़िलाफ़ ये कंपनियाँ काम करेंगी। भविष्य में क्या होगा यह तो हम लोग नहीं जानते। पर जो हो रहा है वह तो देख सकते हैं। इसके दो उदाहरण हैं। एक, डेयरी क्षेत्र। जहाँ सारा क़ारोबार को-आपरेटिव और निजी हाथों में है। एक लीटर दूध बेचने वाले किसान को भी कोई नहीं लूट रहा। दूसरा, मुर्गी पालन (पोल्ट्री फ़ार्मिंग)। इसमें शत प्रतिशत काम निजी क्षेत्र में ही हो रहा है। 

डेयरी क्षेत्र और मुर्गी पालन, इन दोनों क्षेत्रों में काम करने वाले किसान अनाज उगाने वाले किसानों से ज़्यादा सुखी हैं।

किसान तो बहाना हैं

सारी बात का लब्बो-लुआब यह है कि यह आंदोलन केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि भारत में संवैधानिक जनतंत्र के ख़िलाफ़ है। किसान तो बहाना हैं। यह आंदोलन भारतीय राष्ट्र राज्य को कमज़ोर करने की दिशा में बढ़ गया है। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सात राज्यों के किसानों से बात करते हुए एक बार फिर कहा कि उनकी सरकार के दरवाज़े तर्क और तथ्य पर आधारित बातचीत के लिए हमेशा खुले हैं। इसका इतना सा असर हुआ कि आंदोलनकारी 29 दिसम्बर को बात के लिए तैयार हुए हैं। पर वही मुर्गी की एक टांग वाली कहावत के मुताबिक़ बातचीत की पहली शर्त है सरकार तीन क़ानूनों को रद्द करे। अब समय आ गया है कि इस आंदोलन और आंदोलनकारियों से सख़्ती से निपटा जाए। ऐसी ताक़तों के ख़िलाफ़ भारतीय राष्ट्र-राज्य को कमज़ोर नहीं नज़र आना चाहिए।

'आपका अख़बार' से साभार।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
प्रदीप सिंह
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें