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बिहार में कभी ज्योति जैसी लड़कियों का साइकिल चलाना चरित्रहीन होना था

बहुत पीछे लौटने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। 20 से 25 साल पीछे लौट जाइये। बिहार में लड़कियों का साइकिल चलाना अटपटा मालूम पड़ता था। गाँव की लड़कियों की तो छोड़ ही दीजिए, छोटे-छोटे शहरों में भी इसका चलन नाम मात्र ही था। स्कूल में लड़कियों की संख्या भी बहुत कम थी। 

बिहार में लड़कियों की स्थिति के अध्ययन के लिए इसे कई सेग्मेंट्स में बाँट कर देखना होगा। सभी लड़कियाँ समान रूप से सभी चीजों को एन्जॉय नहीं कर रहीं। एक तो वे हैं जो सवर्ण परिवारों से आती हैं जहाँ के परिवार शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से उन्नत हैं। उसी वर्ग में लड़कियों का दूसरा सेगमेंट है जिनका परिवार आर्थिक रूप से कमज़ोर है।

अब मँझोली जातियों में आइए जिसमें यादव, तेली, सूरी, कोइरी, कुर्मी और अन्य कई जातियाँ हैं। इसमें भी 2 सेग्मेंट्स हैं। एक वह जिनका परिवार थोड़ा खाता-पीता परिवार है जिसके घरों में छोटी-मोटी सरकारी नौकरियाँ हैं या ज़मीन-जायदाद अच्छी खासी है। जबकि दूसरा सेग्मेंट वह है जो गाँवों में ही छोटी मोटी चाय दुकान, किराना दुकान या मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन पोषण करता है।

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अब दलित वर्ग की तरफ़ बढ़िए। इसमें खाते-पीते परिवार बहुत कम हैं। 10 % हों तो बहुत है। चलिए एक सेगमेंट इसका भी बना लेते हैं। लेकिन ज्योति पासवान जिस सेगमेंट से आती हैं वह बिहार के समाज का सबसे निचला सेगमेंट है जो सामाजिक रूप से भी निचले पायदान पर है और आर्थिक मोर्चे पर भी खस्ताहाल में है।

तो मैं जिस समय की बात कर रहा था, लड़कियों के लिए साइकिल चलाना एक बहुत विशेष क़िस्म का प्रिविलेज था। सबसे ऊपर का जो सेगमेंट है उस सेगमेंट की एकाध लड़कियाँ इस प्रिविलेज को एन्जॉय कर रही थीं बिहार में। ज़ाहिर तौर पर यह सेगमेंट बहुत-बहुत छोटा था। उसका साइकिल चलाना उसके स्मार्ट होने, मॉडर्न होने और न जाने क्या-क्या होने के विशेषण थे। सवर्ण वर्गों की भी वैसी लड़कियाँ जो आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों से आती थीं, इस प्रिविलेज को एन्जॉय नहीं कर रही थीं।

बाक़ी पिछड़ी जातियों की वैसी लड़कियाँ भी जिनका परिवार आर्थिक रूप से सुदृढ़ था और जिनके पिताजी पढ़े-लिखे भी थे, सरकारी नौकरियों में भी थे, उन परिवारों की लड़कियाँ भी साइकिल नहीं चलाती थीं। यदि किसी परिवार की लड़की ने थोड़ा-सा साहस जुटा लिया तो उस पर फब्तियाँ कसी जाती थीं। यह बात दीगर है कि सम्पन्न परिवार से होने की वजह से सामने कोई कुछ नहीं बोलता था। किसी ग़रीब परिवार की किसी लड़की ने ऐसी हिमाकत कर ली तो सामने ही चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र दे देना भी नॉर्मल यानी सामान्य ही था।

जहाँ ज्योति पासवान आज खड़ी हैं, वहाँ उनके ज़ेहन में साइकिल चलाने की बात आना भी मुमकिन नहीं था। साइकिल चलाना तो बहुत दूर की बात थी। 2008 तक यही सामान्य था। लेकिन उसके बाद एक ‘न्यू नॉर्मल’ बन गया।

और यह न्यू नॉर्मल एक सामाजिक क्रांति जैसा था। हुआ यूँ कि नीतीश कुमार ने बिहार में साइकिल और पोशाक योजना लागू की। शुरू में यह लड़कियों के लिए था लेकिन बाद में लड़कों को भी शामिल कर लिया गया। योजना लागू करने के वर्ष में साइकिल ख़रीदकर ही दिए जाते थे लेकिन बाद में इसके बदले राशि खाते में ट्रांसफर की जाने लगी। 

इस साइकिल योजना का लड़कियों की शिक्षा की गुणवत्ता पर क्या असर हुआ, यह अलग विमर्श है लेकिन यह एक निर्विवाद तथ्य है कि सरकारी विद्यालयों में लड़कियों की आमद और नामांकन में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। जहाँ कभी प्राथमिक और उच्च विद्यालयों में गर्ल्स स्टूडेंट्स नाम मात्र की होती थीं, अब नामांकन रजिस्टर में उनकी तादाद लड़कों के बराबर रहने लगी। और इसमें सभी वर्गों की लड़कियाँ थीं। दलित भी, पिछड़ी भी और वैसी सवर्ण लड़कियाँ भी जो आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों से आती थीं। बिहार की सड़कों पर चाहे वो ग्रामीण क्षेत्र की हों या शहरी या अर्द्ध शहरी, साइकिल पर सवार लड़कियाँ फर्राटा मारने लगीं। अब वह हिचक, सामाजिक बंदिशें, साइकिल चलाने पर चरित्र पर उठने वाली उँगलियाँ ग़ायब होने लगीं। यह एक न्यू नॉर्मल था।

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आज उन साइकिलों पर लड़कियाँ स्कूल के टाइम पर स्कूल जाती हैं, स्कूल से आकर अपनी माँ के कहने पर खेतों से करियर पर फ़सल बाँधकर भी ले आती हैं तो कभी आटा चक्की पर से आटा की बोरी भी उसी साइकिल पर लादकर ले आती हैं तो कभी रोते हुए छोटे भाई को पीछे बिठाकर गाँव की सड़कों पर सैर भी करा लाती हैं। अब लड़कियों के साइकिल चलाने पर फ़ब्तियाँ नहीं कसी जातीं। अब उसको चरित्रहीन भी नहीं कहा जाता। क्योंकि अब सबके परिवार की लड़कियाँ साइकिल चलाती हैं। ज्योति पासवान भी ऐसी ही लड़कियों में से एक हैं।

आज ज्योति की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है लेकिन उसमें उस सरकारी योजना का भी योगदान है जो लड़कियों को न सिर्फ़ स्कूल की चौखट तक लेकर आयी बल्कि उनमें एक अलग क़िस्म के आत्मविश्वास का संचार किया जहाँ उसमें आगे बढ़ने की ललक है, अपने लिए बराबरी लेने की ज़िद है, ज्योति पासवान जैसी हनक है। यह एक मूक क्रांति से कम नहीं।

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लालबाबू ललित
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