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फ़ोटो साभार: ट्विटर/@ShivAroor

केरल में भी उन्नाव और हाथरस हो रहा है?

चर्चों और उनसे जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ धर्म परिवर्तन कराने के आरोपों के नाम पर हमले करने वाले कट्टर हिंदुत्व के समर्थक राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन पादरियों के यौनाचार प्रकरणों पर मौन क्यों साधे रहते हैं? 
श्रवण गर्ग

कोई पच्चीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में चुनावों को लेकर मचे घमासान के बीच सिर्फ़ चार करोड़ की जनसंख्या के सुदूर दक्षिणी राज्य केरल की चर्चा करना थोड़ा अप्रासंगिक लग सकता है फिर भी ऐसा करना ज़रूरी है। कहा जा सकता है कि केरल भी अब उत्तर प्रदेश में तब्दील हो रहा है। धर्म, बलात्कार और ‘अन्याय’ के बीच चलने वाला अश्लील गठबंधन अपना चोला उतारकर वहाँ भी वस्त्रहीन हो रहा है यानी केरल में भी उन्नाव और हाथरस हो रहा है।

उनतालीस नहीं मुकरनेवाले गवाहों के बयान, दो हज़ार पृष्ठों के आरोप-पत्र और निर्दोष एसआईटी जाँच को ख़ारिज करते हुए कोट्टायम (केरल) की एक अदालत ने एक नन के साथ तीन सालों (2014 से 2016) में तेरह बार दुष्कर्म करने के आरोपी 57-वर्षीय कैथोलिक बिशप फ़्रेंको मुलक्कल को संक्रांति (14 जनवरी) के दिन अपने एक पंक्ति के फ़ैसले में सभी आरोपों से बरी कर दिया। फ़ैसला सुनाए जाने के समय पीड़िता नन की ओर से लड़ाई लड़ने वाली साथी ननें भी अदालत में उपस्थित थीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि घटनाक्रम के सदमे से अवाक अदालत में उस समय मौजूद सभी एक-दूसरे से पूछ रहे थे कि जो फ़ैसला सुनाया गया क्या वह वाक़ई एक सचाई है?

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उक्त प्रकरण के सिलसिले में कोट्टायम के ही एक कैथोलिक कान्वेंट की एक उन्नीस-वर्षीय नन अभया की तीस वर्ष पूर्व नृशंस तरीक़े से की गई हत्या का भी स्मरण कराया गया है। अभया का दोष सिर्फ़ इतना था कि उसने 27 मार्च 1992 अल सुबह दो पादरियों और एक ‘सिस्टर’ को कान्वेंट के रसोईघर में आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया था। इसके बाद दुष्कर्म में लिप्त तीनों आरोपियों ने अभया की कुल्हाड़ी से हत्या करके उसकी लाश को कान्वेंट के परिसर स्थित कुएँ में डाल दिया था। हत्या में संलिप्तता के आरोप में तीनों आरोपियों को वर्ष 2008 में गिरफ़्तार कर लिया गया था पर सभी दो महीने के बाद ही ज़मानत पर रिहा हो गए थे। घटना के अट्ठाईस साल नौ महीने बाद (2020 में) एक पादरी और ‘सिस्टर’ को तिरुवनंतपुरम की सीबीआई अदालत ने उम्र क़ैद की सजा सुनाई थी। आगे क्या कुछ हो सकता है कहा नहीं जा सकता।

ताज़ा प्रकरण में बिशप फ़्रेंको को बलात्कार के आरोपों से बरी करते हुए कोट्टायम के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपने 289 पृष्ठों के फ़ैसले में लिखा कि ननों के बीच आपसी लड़ाई और प्रतिष्ठान में सत्ता हथियाने के संघर्ष के स्पष्ट प्रमाण हैं। प्रकरण में अनाज और भूसे के बीच इस तरह का मिश्रण हो गया है कि दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसी और मामले में पूर्व में दिए गए निर्णय का हवाला देते हुए जज ने अपने फ़ैसले के ऑर्डर में कहा कि जब सच को झूठ से अलग करना सम्भव न हो, जब अनाज और भूसा पूरी तरह आपस में मिल गए हों; विकल्प यही बचता है कि सभी साक्ष्यों को ख़ारिज कर दिया जाए।

अदालत में जिन 39 गवाहों के बयान दर्ज हुए थे उनमें एक मुख्य धर्माध्यक्ष (आर्चबिशप )और एक धर्म प्रमुख (कार्डिनल) के अलावा तीन धर्माध्यक्ष (बिशप), ग्यारह पादरी (प्रीस्ट) और 25 ननें शामिल थीं। 

केरल और अन्य स्थानों पर चर्च में धर्म माफिया किस तरह से हावी हो रहा है इसका संकेत इस बात से मिलता है कि बिशप फ़्रेंको के ख़िलाफ़ बोलने वाले एक प्रमुख गवाह फादर कुरियाकोस कट्टथारा संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाए गए थे।

कोट्टायम अदालत द्वारा फ़ैसला देने के तुरंत बाद बिशप फ़्रेंको ने विभिन्न गिरिजाघरों की यात्रा करने के साथ-साथ पूर्व निर्दलीय विधायक पी सी जॉर्ज से भी मुलाक़ात की। बिशप के ख़िलाफ़ प्रकरण चलने के दौरान ही जॉर्ज ने फ़्रेंको का बचाव करते हुए कहा था, “उनके पास घटना के एक दिन बाद के पीड़िता नन के मलक्कल के साथ फ़ोटोग्राफ़ और वीडियो हैं जिनमें वह खुश नज़र आ रही है।’’ विधायक ने नन को ‘प्रोस्टीट्यूट’ भी करार दिया था।

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एक अनुमान के मुताबिक़ देश भर में लगभग डेढ़ करोड़ की जनसंख्या वाले कैथोलिक ईसाइयों में पादरियों और ननों की संख्या डेढ़ लाख से अधिक है। पादरी कोई पचास हज़ार हैं बाक़ी नन हैं। ऊपरी तौर पर साफ़-सुथरे और महान दिखाई देने वाले चर्च के साम्राज्य में कई स्थानों पर ननों के साथ बंधुआ मज़दूरों या ग़ुलामों की तरह व्यवहार किए जाने के आरोप लगते रहते हैं। चर्च से जुड़े प्रतिष्ठानों में बच्चों व अन्य लोगों के साथ यौन शोषण के आरोप अब अमेरिका सहित दुनिया भर के देशों में एक बड़ी संख्या में उजागर हो रहे हैं। ईश्वरीय आस्था के नाम पर होने वाले अन्य भ्रष्टाचार अलग हैं। दुखद स्थिति यह है कि चर्च से जुड़ी हुई अधिकांश नन् या सिस्टर्स समस्त अन्याय शांत भाव से स्वीकार करती रहती हैं। कोई अगर विरोध की आवाज़ उठाता भी है तो अधिकांश मामलों में उसे अपनी लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़ती है।

केरल में पिलाई के एक कैथोलिक पादरी जोसेफ कलरंगाट द्वारा कुछ माह पूर्व एक धार्मिक सभा में दिए गए इस बयान से राज्य के राजनीतिक क्षेत्रों में तहलका मच गया था कि देश में दो तरह के जिहाद चल रहे हैं : लव जिहाद और नारकोटिक जिहाद। पहले में मुसलिम युवक ईसाई और हिंदू लड़कियों से जबरन विवाह कर उन्हें आतंक के रास्ते पर धकेलते हैं। दूसरे जिहाद में आईसक्रीम पार्लर, होटल और जूस कॉर्नर चलाने वाले धर्म विशेष के लोग दूसरे धर्मों के लोगों को ड्रग्स का आदी बनाते हैं। सत्तारूढ़ वाम मोर्चे और कांग्रेस ने बयान को समाज को बाँटने वाला बताया था जबकि बीजेपी और संघ से जुड़े नेताओं ने उसके प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए केंद्र से उसका संज्ञान लेने की माँग की थी।

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बिशप फ़्रेंको के ख़िलाफ़ आरोपों की जाँच करने वाली स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) के प्रमुख ने अदालत के फ़ैसले को अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और हैरान करने वाला बताया है। बिशप के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व करने वाली सिस्टर अनुपमा ने घोषणा की है कि संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक कि उनकी पीड़िता साथी को न्याय नहीं मिल जाता, वे इस काम के लिए जान भी देना पड़े तो तैयार हैं।

सवाल सिर्फ़ दो हैं : चर्चों और उनसे जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ धर्म परिवर्तन कराने के आरोपों के नाम पर हमले करने वाले कट्टर हिंदुत्व के समर्थक राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन पादरियों के यौनाचार प्रकरणों पर मौन क्यों साधे रहते हैं? क्या इसका कारण पोप से प्रेम या गोवा और मणिपुर उत्तर-पूर्व के विधानसभा चुनावों में ईसाई मत प्राप्त करना है? दूसरे यह कि हाथरस, उन्नाव आदि में होने वाले बलात्कार के प्रकरणों में अगुवाई करने वाला मुख्यधारा का मीडिया केरल की इन बड़ी घटनाओं पर चुप क्यों बैठ जाता है? सवाल तो केरल से लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले और उन्नाव से बलात्कार की पीड़िता की माँ को कांग्रेस की ओर से विधानसभा का टिकट देने वाले राहुल गांधी से भी पूछा जा सकता है कि उन्नाव और कोट्टायम के बीच क्या दूरी इतनी ज़्यादा है?

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