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राहुल गांधी और पीएम मोदी कैसे करते हैं एक दूसरे का सामना?

2014 से पहले जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आने की तैयारी कर रहे थे; तब, और फिर सत्ता में आने के बाद से, लगातार बीजेपी ने इस नैरेटिव पर काम किया कि देश के किसी भी दूसरे नेता की छवि को या तो नरेंद्र मोदी से आगे दिखने से रोक दिया जाए या अन्य तरीक़े से उस नेता की छवि को कमजोर किया जाए। ऐसा करने के लिए या तो कोई भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दे से टारगेट किया जाए और ऐसा करना संभव न हो तो किसी अन्य तरीके से कम से कम उस नेता की छवि पर मीडिया का सहारा लेकर कोई दाग धब्बा तो लगाया ही जा सकता है। कभी भाषणों को गलत इरादे से छेड़छाड़ (काट कर, आधा अधूरा) करके, तो कभी हजारों बेरोजगारों की ऐसी फौज के माध्यम से जो लगातार, बार बार कुछ पैसों के लिए सिर्फ गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल करें और नेताओं की अच्छी छवि को लगातार सोशल मीडिया में खराब कर सकें।

राहुल गाँधी वैसे ही एक नेता हैं जिनसे बीजेपी को सबसे ज़्यादा ख़तरा है। लेकिन जिस तरह एक डरपोक व्यक्ति अंधेरे में शोर मचाता हुआ चलता है, गुर्राता है अंदर से वह काँपता है, पर उसके अंदर का भय उसे थोड़ी देर के लिए महसूस न हो उसके लिए वह दौड़ भी लगाता है, वैसे ही बीजेपी ने राहुल गाँधी को लेकर किया। इससे पहले कि राहुल गाँधी का भय बीजेपी पर हावी होता उन्होंने पहले से ही बड़बड़ाना भी शुरू कर दिया। राहुल गाँधी के विषय में अभद्र टिप्पणियाँ की गईं, तब तक की गईं जब तक आश्वस्त नहीं हुए कि अब यह फैल गया है, उसके लिए उन्होंने सोशल मीडिया, मैसेजिंग ऐप का बड़े स्तर पर सहारा लिया, अखबारों में राहुल गाँधी की कोई न्यूज न आए, यह भी पाठकों द्वारा महसूस किया गया। सिर्फ राहुल गाँधी को बदनाम करने के लिए एक नाम ‘पप्पू’ को जहरीला और घृणा का प्रतीक बना दिया गया। भारत के हर एक कोने में यह नाम माता-पिता अपने बच्चों के लिए प्रेम से रखते आए हैं लेकिन बीजेपी की नीति ने इस नाम और इसको धारण करने वाले सभी को सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए बदनाम कर दिया।

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वास्तविकता तो यह है कि नरेंद्र मोदी को राहुल गाँधी का सामना बिल्कुल सीधे करना चाहिए था। काबिलियत दिखाने का सबसे अच्छा तरीक़ा है, सीधे, सामने आकर लोकतान्त्रिक तरीके से टकराना। लेकिन इस खेल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो अभी सामान्य ‘ककहरा’ भी नहीं जानते। जो इंसान पिछले दस सालों में एक खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस भी न कर सका हो, भारत के पत्रकारों के सवालों का सामना खुलकर न कर सका हो, उसकी तुलना राहुल गाँधी से तो होनी ही नहीं चाहिए। किसी और नेता से भी नहीं की जानी चाहिए।

प्रधानमंत्री पद बड़ा है तो सवाल भी बड़े होंगे, डरना नहीं चाहिए था! अंदर का डर तो सामना करने से ही जाता है, और उनके लिए ये सामना करने का काम उन्हीं को अर्थात नरेंद्र मोदी को ही करना पड़ेगा। राहुल गाँधी कैसे उन्हें बचा सकते हैं? राहुल गाँधी उनके लिए गाली सुन चुके, बदनामी सह चुके, संसद में गले भी लगा लिया लेकिन पत्रकारों के तीखे सवाल तो स्वयं नरेंद्र मोदी जी को ही झेलने होंगे।

राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी दोनों बिल्कुल विपरीत व्यक्तित्व हैं। एक तरफ़ राहुल गाँधी पूरी तरह ‘अभय’ को प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें किसी भी हानि की चिंता नहीं है। राहुल को न ही जेल जाने का भय है, न ही किसी सरकारी एजेंसी का। ऐसा लगता है मानो 75 वर्षों के आजादी के इतिहास में गाँधी परिवार ने एक रुपये का भी भ्रष्टाचार न किया हो, आश्चर्य हो सकता है, लेकिन सच यही है। खुद जांच लीजिए, पिछले दस सालों से तथाकथित सबसे सशक्त सरकार है लेकिन राहुल गाँधी तो छोड़िए उनके परिवार और आसपास के किसी रिश्तेदार पर भी कोई अपराध/भ्रष्टाचार साबित नहीं हुआ है। वहीं नरेंद्र मोदी का भय उनके भाषणों में सुना जा सकता है। उन्होंने आज तक संसद में अडानी और उनके संबंध, अडानी का 2014 के बाद से उभार, अडानी को मिलने वाले सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह और एयरपोर्ट और अन्य ऐसे ही मामलों में एक शब्द भी नहीं बोला है। इसका अर्थ सभी अपने अपने तरीके से निकाल सकते हैं। मेरा अनुमान है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास इन प्रश्नों के जवाब ही नहीं है।
राहुल गाँधी किसी चुनाव में जीत भर जाने के लिए दो समुदायों के बीच ‘कब्रिस्तान बनाम श्मशान’ नहीं कर सकते हैं; राहुल गाँधी भारत की एकता के प्रति इतने प्रतिबद्ध हैं।
राहुल यहाँ की विविधता से इतने अधिक प्रभावित हैं और इसे इतना अधिक ज़रूरी समझते हैं कि ‘कपड़ों से पहचानने’ के तरीक़े में भरोसा नहीं करते; राहुल गाँधी अपने नेतृत्व में कभी भी किसी क्षेत्र को ‘चंडीगढ़’ बनने नहीं दे सकते जिससे कल के दिन भारत की सबसे बड़ी अदालत को यह कहना पड़ जाए कि ‘लोकतंत्र की हत्या’ की गई है। राहुल गाँधी राम, कृष्ण और हनुमान को चुनावी रैलियों में इस्तेमाल करके चुनावी मैदान नहीं सजाते उनके लिए धर्म व्यक्तिगत व्यवस्था है ‘कुर्सी’ के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चीज नहीं। राहुल गाँधी घृणा और हिंसा को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं; ऐसे मुद्दों पर खामोश रहना राहुल गाँधी को नहीं आता भले ही इसकी कीमत चुनावी हार के रूप में ही सामने क्यों न आए।
विचार से और

राहुल गाँधी चुनाव जीतने के लिए लोकतंत्र को दाँव पर न लगाने के अपने विचार पर अडिग हैं। उनकी इस सोच से कई बार उनके अपने पार्टी के कार्यकर्ता और ‘शुभचिंतक’ भी सहमति नहीं रखते हैं। अप्रासंगिक लग सकता है लेकिन उन्हें तो इस बात से भी फ़र्क नहीं पड़ता कि पार्टी में उनके साथ कौन बचेगा, या फिर वो अकेले ही रह जाएंगे। यह देखा भी जा रहा है कि राहुल गाँधी के बहुत क़रीबी नेता एक एक करके पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। लेकिन राहुल गाँधी ने ‘भारत के लोगों’ से जुड़ने का फ़ैसला किया है। राहुल गाँधी की इस सोच का राजनैतिक परिणाम कुछ भी आ सकता है, लेकिन वो व्यक्तिगत  रूप से सत्ता के लिए राष्ट्र को नहीं मिटने दे सकते।

यह अब छिपा हुआ तथ्य नहीं रहा कि नरेंद्र मोदी की ‘खामोशी’ वाली रणनीति के उलट राहुल गाँधी समाज के हर वर्ग के मुद्दों के लिए बेहद ‘मुखर’ हो चुके हैं। जहां नरेंद्र मोदी सिर्फ रैलियों और अपने ‘लोकार्पण’ कार्यक्रमों में ही गरजते दिखते हैं किसी समाजिक व लोकमहत्व के मुद्दे पर नहीं, वहीं राहुल गाँधी ने खामोशी को हजारों फुट नीचे दफ़न कर दिया है। चाहे परीक्षा लीक के मामले में योगी सरकार को ललकारना हो या फिर अडानी के मामले में नरेंद्र मोदी को, राहुल कहीं नहीं रुक रहे हैं। RO-ARO परीक्षा का परचा लीक मामला हो, 65 लाख परीक्षार्थियों वाली यूपी पुलिस सेवा में भर्ती के पेपर लीक का मामला हो, या फिर 6800 ओबीसी व अनुसूचित जाति के शिक्षकों की भर्ती बहाली का मामला हो, राहुल गाँधी युवाओं को निडर बनाकर, माइक पकड़ाकर, अपनी गाड़ी में बिठाकर, भयमुक्त करके सरकार से सवाल पूछने और न्याय मांगने की जिस चेतना का विकास कर रहे हैं वह आज के भारत में दुर्लभ है। राहुल कहते हैं “माइक पकड़ना सीखो और जोर से बोलो”।

70 के दशक में सामाजिक न्याय की लड़ाई में कई नेताओं का उदय हुआ। उनकी 50 सालों की राजनीति के बाद उनमें ढेरों ढह चुके हैं और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते सांप्रदायिकता की गोद में जा गिरे हैं।

कुछ बच भी गए हैं लेकिन 21वीं सदी के आधुनिक भारत में राहुल गाँधी से बड़ा सामाजिक न्याय का ‘लड़ाका’ कोई नहीं है। एससी, एसटी और ओबीसी को बब्बर शेर कहकर पुकारने वाले राहुल गाँधी लगातार जातीय जनगणना की न सिर्फ वकालत कर रहे हैं बल्कि इसे लेकर नरेंद्र मोदी सरकार के सामने डटकर खड़े हैं।

राहुल गाँधी ज़रूरी हैं क्योंकि वो युवाओं के लिए एक सहारा बनकर उभरे हैं। आखिर यूपी में मंत्रियों के घर के बाहर मार खा रहे प्रदर्शनकारियों को कौन कंधा देगा? करोड़ों बेरोज़ग़ारों को कौन सुनेगा? जिनके घरों में धर्म को ध्यान में रखकर बुलडोजर चलाए जा रहे हैं उनकी कौन सुनेगा? रामलला की चकाचौंध की आड़ में जिन सैकड़ों घरों को गिराया गया उनकी व्यथा कौन सुनेगा? 

ख़ास ख़बरें

भारत जोड़ो न्याय यात्रा 4 हजार किमी से अधिक का सफर तय कर चुकी है। 25 फरवरी को उत्तर प्रदेश में इस यात्रा का अंतिम दिन था। उत्तर प्रदेश में लगभग 10 दिन यात्रा रही लेकिन अख़बारों और टीवी मीडिया में इस न्याय यात्रा की खबरें नदारद हैं। ‘न्याय का हक मिलने तक’ जैसी बातों को भी मीडिया समर्थन देने में नाकाम रही। वास्तव में इसे ‘न्याय के खिलाफ मीडिया की घोषणा’ समझा जाना चाहिए। यही अर्थ निकालना चाहिए कि मीडिया को न्याय और नागरिकों से नहीं सत्ता और पैसों से मतलब है। एक तरफ़ नरेंद्र मोदी लंबे पुल के उद्घाटन पर भी हर जगह ख़बरों में हैं तो दूसरी तरफ़ राहुल गाँधी हजारों किमी चलने के बाद भी मीडिया में छपने के लायक नहीं हैं। ‘संवाद’ और ‘सूचना’ के माध्यमों का सरकारी अपहरण भारत की आत्मा को चोट पहुँचा रहा है इसे रोका जाना चाहिए। 

भारत में आज का दौर लोकतंत्र के लिहाज से नर्क का दौर है जहां सत्ता ही तय करती है कि विपक्ष लोगों तक कितनी पहुँच बना पाएगा, जहां सत्ता ही तय करती है कि अखबारों में नागरिक आंदोलनों को कितनी जगह मिलेगी, जहां सत्ता ही अफवाहों से खेल रही है। वर्तमान भारत में राहुल गाँधी इसलिए भी जरूरी हैं ताकि लोकतंत्र के खंभों को तोड़ने वाले हथौड़ों को पकड़ा जा सके; ताकि हर उस ईंट को सुरक्षित रखा जा सके जिसे सत्ता अपने लाभ के लिए गैर-जरूरी समझती है; ताकि कम संख्या के आधार पर लोगों की आवाजों को अनसुना करने के तरीकों पर रोक लगाई जा सके; ताकि ‘दाढ़ी’ और ‘तिलक’ को लड़ाने की आदत को मिटाया जा सके; ताकि भारत को फिर से नेहरू और गाँधी का भारत बनाया जा सके।

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कुणाल पाठक
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