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और कितने विभाजन शेष हैं अभी?

चुनाव-परिणामों से उपजने वाली चिंता हक़ीक़त में तो यह होनी चाहिए कि क्या ममता के हार जाने की स्थिति में पहले नंदीग्राम और फिर बंगाल के दूसरे इलाक़ों में मिनी पाकिस्तान चिन्हित किए जाने लगेंगे? बंगाल के और कितने विभाजन होना अभी शेष हैं? 
श्रवण गर्ग

देश में पश्चिम बंगाल के बाहर बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो इस सच्चाई के बावजूद ममता बनर्जी को जीतता हुआ देखना चाहते हैं कि उनके मन में तृणमूल कांग्रेस की नेता के प्रति कई वाजिब कारणों से ज़्यादा सहानुभूति नहीं है। वे ममता की हार केवल इसलिए नहीं चाहते कि नरेंद्र मोदी की जीत उन्हें ज़्यादा असहनीय और आक्रामक लगती है।

उनके मन में ऐसी कोई दिक़्क़त केरल और तमिलनाडु को लेकर नहीं है। असम को लेकर भी कोई ज़्यादा परेशानी नहीं हो रही है। इन राज्यों के चुनावी भविष्य पर ‘कोऊ नृपु होय, हमें का हानि’ वाली स्थिति है। सभी की नजरें बंगाल पर हैं।

मोदी से ज़्यादा नाराज़गी

नाराज़गी ममता और मोदी दोनों से है, पर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 में दूसरे के प्रति ज़्यादा है जो पहले के लिए सहानुभूति पैदा कर रही है। इसका कारण मुख्यमंत्री का ‘एक अकेली महिला’ होना भी हो सकता है। ममता अगर बंगाल में अपनी सत्ता बचा लेती हैं तो उसे उनके प्रति जनता के पूर्ण समर्थन के बजाय मोदी के प्रति बंगाल के हिंदू मतदाताओं में सम्पूर्ण समर्पण का अभाव ही माना जाएगा।

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सीपीआईएम की जगह बीजेपी क्यों?

कहा भी जा रहा है कि मोदी की जीत के लिए बंगाल के सभी हिंदुओं (आबादी के 70 प्रतिशत) के वोट अथवा पड़ने वाले कुल मतों के 60 प्रतिशत से अधिक के शेयर की ज़रूरत होगी। लोकसभा चुनावों (2019) में बीजेपी 40.64 प्रतिशत के वोट शेयर तक तो पहुँच गई थी।

बंगाल में ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि एंटी-इनकम्बेंसी तो मौजूदा सरकार के प्रति है पर उसका स्थान वह पार्टी नहीं ले रही है जो ममता के पहले कोई साढ़े तीन दशकों तक राज्य की सत्ता में थी यानी सीपीआईएम और उसके सहयोगी दल। 

सवाल यह है कि ममता के ख़िलाफ़ बीजेपी के सफल धार्मिक ध्रुवीकरण का मुख्य कारण अगर वर्तमान मुख्यमंत्री की कथित मुसलिम तुष्टिकरण की नीतियाँ हैं तो क्या राज्य के हिंदू मतदाता घोर नास्तिक माने जाने वाले मार्क्सवादियों की हुकूमत में पूरी तरह से संतुष्ट थे?

‘आसोल पोरिबोरतन’?

क्या मार्क्सवादी ज़्यादा हिंदू- परस्त थे और राज्य के मुसलिमों का उनके प्रति वही नज़रिया था जो बीजेपी का है? ऐसा होता तो सत्ता में वापसी की सम्भावनाएँ वामपंथी-कांग्रेस गठबंधन की बननी चाहिए थीं, एक ऐसी पार्टी की क़तई नहीं जो बंगाल की राजनीति में कभी प्रभावी तौर पर मौजूद ही नहीं थी और जिसे दूसरी पार्टियों से उम्मीदवारों की ‘खरीद-फ़रोख़्त’ करके चुनाव लड़ना पड़ रहा हो।

बाद में बंगाल के हिंदुओं ने ही मार्क्सवादियों को सत्ता से बाहर रखने में ममता का दस सालों तक साथ दिया। बंगाल के अचानक से दिखने वाले इस चरित्र परिवर्तन,  जिसे प्रधानमंत्री ‘आसोल पोरीबोरतन’ बता रहे हैं,  के पीछे कोई और बड़ा कारण होना चाहिए।

एक अन्य सवाल यह है कि ममता अगर वापस सत्ता में आ जाती हैं तो क्या वे अपने विरोधियों के प्रति ज़्यादा सहिष्णु हो जाएँगी? अधिक लोकतांत्रिक बन जाएँगी? अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर ज़्यादा उदार भाव अपनाने लगेंगी?

ममता लौटीं तो?

अल्पसंख्यकों को पहले की तरह ही अपने साथ लेकर चलती रहेंगी? शायद नहीं।  अंदेशा इस बात का अधिक है कि उनकी वापसी के बाद बंगाल में हिंसा ज़्यादा होने लगेगी, वे अपने सभी तरह के विरोधियों के ख़िलाफ़ प्रतिशोध की भावना से काम करेंगी। प्रतिशोध की राजनीति ही तृणमूल की मूल ताक़त भी रही है।

west bengal assembly election 2021 : mamata banerjee and muslim appeasement - Satya Hindi
मुसलिम-बहुल इलाक़े में जनसभा को संबोधित करती हुई ममता बनर्जी

बीजेपी के साथ?

इसके उलट, अगर बीजेपी सत्ता में आ गई तो क्या एक स्वच्छ और ईमानदार सरकार उन लोगों की भागीदारी और नेतृत्व में बंगाल में क़ायम हो सकेगी जो अपने विरुद्ध कथित तौर पर भ्रष्टाचार के आरोपों अथवा अन्य ग़ैर-राजनीतिक कारणों के चलते इतनी बड़ी संख्या में तृणमूल और अन्य दलों से छिटककर उसके साथ जुड़ने को तैयार हो गए?

राज्य की 30 प्रतिशत मुसलिम आबादी, जो पिछले लोकसभा चुनावों के बाद से ही कथित तौर पर ममता को अल्पसंख्यक विरोधी और हिंदू तुष्टिकरण की नीतियों पर चलने वाली मानने लगी थी, क्या बीजेपी के शासन में अपने आपको ज़्यादा सुरक्षित महसूस करने लगेगी?

तो क्या यह मानकर चला जाए कि बंगाल की बहुसंख्य जनता किसी अज्ञात समय से किसी ऐसी पार्टी के प्रवेश की चुपचाप प्रतीक्षा कर रही थी जो कि मार्क्सवादियों से भी अलग हो और तृणमूल कांग्रेस भी नहीं हो?

दिल्ली की नज़ीर

बंगाल के मतदाता की नज़रों में ममता की पार्टी कांग्रेस से टूटकर ही बनी थी, इसलिए उसे अब किसी भी तरह की कांग्रेस नहीं चाहिए। वर्ष 2015 के प्रारम्भ में दिल्ली विधान सभा के चुनावों में ऐसा ही हुआ था। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी शीला दीक्षित सरकार को तो ले डूबी पर उसके स्थान पर दिल्ली में दूसरे क्रम पर स्थापित पार्टी बीजेपी सत्ता में नहीं आ पाई।

ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि उसके कुछ महीनों पहले ही मोदी भारी बहुमत के साथ संसद में पहुँचे थे। मोदी का जादू न सिर्फ़ 2015 में ही काम नहीं आया, 2020 में भी नहीं चला।

west bengal assembly election 2021 : mamata banerjee and muslim appeasement - Satya Hindi
कोलकाता में रेड रोड पर ईद की नमाज के बाद ममता बनर्जी

शुभेंदु अधिकारी का मतलब?

बंगाल चुनावों को लेकर चिंता का निपटारा केवल इसी बहस पर सिमट नहीं जाना चाहिए कि कुछ लोगों की सहानुभूति मोदी के मुक़ाबले ममता के प्रति ज़्यादा क्यों है या कितनी होनी चाहिए। 

एक दूसरे महत्वपूर्ण कारण पर भी गौर करना ज़रूरी है। शुभेंदु अधिकारी इस बार बीजेपी के टिकट पर ममता के ख़िलाफ़ नंदीग्राम में चुनाव लड़ रहे हैं। चुनावों के पहले तक वे ममता के नज़दीकी साथियों में एक थे और तृणमूल के टिकट पर ही नंदीग्राम से ही पिछला चुनाव जीते थे। वे उसी इलाक़े के रहने वाले भी हैं।

और कितने पाकिस्तान?

ममता को हराकर बीजेपी की सरकार बनने की स्थिति में वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हो सकते है। तृणमूल छोड़कर बीजेपी में जाते ही अपने स्वयं के चुनाव क्षेत्र को लेकर उनका नज़रिया सफ़ेद से केसरिया हो गया।

चुनाव आयोग ने आठ मार्च को अधिकारी को उसे प्राप्त एक शिकायत के आधार पर नोटिस जारी किया था। नोटिस के अनुसार, शुभेंदु द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र नंदीग्राम में 29 मार्च को दिए भाषण में कथित तौर पर जो कहा गया उसका अनुवादित सार यह हो सकता है :’अगर आप बेगम को वोट दोगे तो एक मिनी पाकिस्तान बन जाएगा। आपके इलाक़े में एक दाऊद इब्राहिम आ गया है।’

चुनाव-परिणामों से उपजने वाली चिंता हक़ीक़त में तो यह होनी चाहिए कि क्या ममता के हार जाने की स्थिति में पहले नंदीग्राम और फिर बंगाल के दूसरे इलाक़ों में मिनी पाकिस्तान चिन्हित किए जाने लगेंगे? बंगाल के और कितने विभाजन होना अभी शेष हैं? और फिर देश का क्या होने वाला है?

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