नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ इस समय एक ज़बरदस्त माहौल है। कहा जा रहा है कि इस बार तो उनकी पार्टी काफ़ी सीटें हारने वाली है और वह चौथी बार मुख्यमंत्री नहीं बन पाएँगे। प्रचारित किया जा रहा है कि ‘सुशासन’ बाबू ने बिहार को अपने राज के पंद्रह सालों में ‘कुशासन’ के अलावा और कुछ नहीं दिया। (हालाँकि बीजेपी नेता सुशील मोदी भी इस दौरान एक दशक से ज़्यादा समय तक उनके ही साथ उप-मुख्यमंत्री रहे हैं)।
नीतीश का ताक़तवर बने रहना अभी ज़्यादा ज़रूरी है?
- विचार
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- 5 Nov, 2020

नीतीश कुमार की तमाम कमज़ोरियों, विफलताओं और मोदी के शब्दों में ही गिनना हो तो ‘अहंकार’ के बावजूद इस समय उनका (नीतीश का) राष्ट्रीय पटल पर एक राजनीतिक ताक़त के रूप में बने रहना ज़रूरी है। इस समय ज़रूरत एक राष्ट्रीय विकल्प की है, जो कि ममता का उग्रवाद नहीं दे सकता। नीतीश को राजनीतिक संसार में मोदी का एक ग़ैर-भाजपाई, ग़ैर-कांग्रेसी प्रतिरूप माना जा सकता है।
क्या ऐसा तो नहीं है कि मतदाताओं, जिनमें कि लाखों की संख्या में वे प्रवासी मज़दूर भी शामिल हैं, जो अपार अमानवीय कष्टों को झेलते हुए हाल ही में बिहार में अपने घरों को लौटे हैं, की नाराज़गी को मोदी सरकार की ओर से हटाकर नीतीश की तरफ़ किया जा रहा है? नीतीश के मुँह पर बीजेपी से गठबंधन का मास्क चढ़ा हुआ है और वह इस बारे में कोई सफ़ाई देने की हालत में भी नहीं हैं।