मैं वहाँ मौजूद था — 1988 की वो शाम, दिल्ली के सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में, जब राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों का समारोह था। शाम सलीके से आगे बढ़ रही थी — जब मंच से दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए राज कपूर का नाम लिया गया। राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण खड़े हुए, तालियाँ बजने लगीं। पूरा हॉल उठ खड़ा हुआ। मगर राज कपूर नहीं उठे। उठ नहीं सके। एक तेज़ अस्थमा का दौरा उन्हें उनकी पत्नी के कंधे पर ढहा चुका था— जैसे साँसें ही साथ छोड़ गई हों।
राज कपूर: हिंदुस्तान की मुखड़ा संस्कृति का सबसे पहला नुमाइंदा
- सिनेमा
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- 14 Aug, 2025
राज कपूर न केवल एक महान फिल्म निर्माता थे, बल्कि हिंदुस्तान की 'मुखड़ा संस्कृति' का पहला प्रतीक भी माने जाते हैं। जानिए कैसे उनके सिनेमा ने भारतीय समाज के चेहरे और भावनाओं को आकार दिया।

राज कपूर
तभी एक ऐसा मंज़र सामने आया जो शायद फिर कभी न दोहराया जाए— भारत के राष्ट्रपति मंच से नीचे उतरे और सीधे उस बीमार कलाकार के पास पहुँचे। शायद तालियों की गूंज कपूर की बेहोशी को चीर गई। या शायद वो था उनका फ़ितरी जज़्बा — एक ज़िंदगी जो हमेशा पर्दे पर जिया गया था। तकलीफ़ साफ़ थी, मगर पत्नी कृष्णा कपूर का सहारा लेकर वो उठे। मुस्कुराने की कोशिश की। सर झुकाया। और फिर वहीं निढाल गिर पड़े।
एक महीने बाद, लिवरपूल में द गार्डियन में उनके निधन की ख़बर पढ़ी। आगे की पढ़ाई के इरादे से गया था, मामूली रसद से एक सिगरेट खरीदी और एक वीरान, भीगी सड़क पर अकेला चलता रहा— गुनगुनाते हुए कल खेल में हम हो न हो… कोई नहीं था जो मेरे आँसू देखता।