चाहे शिगूफ़े का इरादा हो, चाहे शरारत का, चाहे सनसनी का या फिर वास्तविक सरोकार का- मुक्तिबोध को लेकर दिलीप मंडल ने जो तीर चलाया, वह चल गया लगता है।