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ऐतिहासिक फ़ैसले तो आए, पर आम लोगों के साथ न्याय हुआ?

वर्ष 2019 में जहाँ भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तमाम ऐतिहासिक फ़ैसले सुनाए वहीं कुछ ऐसी न्यायिक निष्क्रियता भी दिखी जिसने न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये। इन सबसे पहले देश की सबसे बड़ी अदालत के चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों ने जनवरी 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए कहा था कि देश न्यायिक संकट से जूझ रहा है।

हाल में जब नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे जामिया मिल्लिया इसलामिया के परिसर में पुलिस की बर्बरता के साथ ही पूरे देश में छात्रों के साथ दमनात्मक कार्रवाई के ख़िलाफ़ याचिका लेकर लोग सुप्रीम कोर्ट पहुँचे तब वहाँ जो सुनने को मिला वह बेहद चौंकाने वाला रहा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह न्यायिक व्यवस्था का अंग नहीं है, इसे क़ानून-व्यवस्था अपने हिसाब से देखेगी। अदालत ने यह भी कहा कि जब तक प्रदर्शन बंद नहीं होता, वह इससे जुड़ी किसी भी याचिका को नहीं सुनेगी!

वर्ष 2019 के कुछ उदाहरण जब न्यायपालिका ने लोगों को निराश किया।

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अनुच्छेद 370 रद्द करना, कश्मीर में पाबंदी

5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को बेअसर करने के बाद से जम्मू-कश्मीर के लोग पाँच महीनों से लगातार संगीनों के साये में हैं। वहाँ के लोग इंटरनेट बंद होने के कारण दुनिया से कटे हुए हैं। यहाँ तक कि चुनिंदा मीडिया को छोड़कर वहाँ का मीडिया गंभीर प्रतिबंधों के तहत अपना काम करने को विवश है।

जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों- फ़ारूक़ अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सहित दर्जनों वरिष्ठ नेताओं के घर जेलों में तब्दील हैं जहाँ उन्हें नज़रबंद करके रखा गया है। केंद्र सरकार ने भारत के लिए सुरक्षा के ख़तरों का हवाला देते हुए उन्हें सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (PSA) के तहत बंद कर रखा है। जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द करने की संवैधानिक वैधता का मुद्दा उच्चतम न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की बेंच के समक्ष लंबित है।

जम्मू-कश्मीर लॉकडाउन के बाद दो महीने में ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष जनहित याचिकाओं का ढेर लग गया। एक त्वरित सुनवाई के मामले को लगभग दो महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने 1 अक्टूबर को एक दिन की सुनवाई का समय दिया, फिर 70 दिनों बाद यानी 10 दिसंबर को याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हुई।

न्यायपालिका की निष्क्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इलाहाबाद की जेल में कश्मीर के 65 वर्षीय राजनीतिक बंदी की मौत के बाद भी इस पर कार्रवाई नहीं हुई। 5 अगस्त के बाद से राज्य के बाहर एक जेल में कश्मीर घाटी के एक राजनीतिक कैदी की पहली मौत थी। 65 वर्षीय ग़ुलाम मोहम्मद भट प्रतिबंधित जमात-ए-इसलामी जम्मू-कश्मीर का पूर्व सदस्य था, जिसे 17 जुलाई को गिरफ़्तार किया गया था। सरकार का कहना था कि भट की मौत सेहत ख़राब होने की वजह से हुई जबकि भट की पत्नी ज़रीफ़ा बेगम का कहना था कि भट बेहद सेहतमंद था और कोई दवाइयाँ भी नहीं लेता था।

सवाल यह उठता है कि जेल में निरुद्ध व्यक्ति की संदिग्ध हालत में मौत की निष्पक्ष जाँच क्या उसका क़ानूनी अधिकार नहीं है?

नागरिकता संशोधन अधिनियम

नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली कई याचिकाएँ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) में पाकिस्तानी, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत आए धार्मिक रूप से प्रताड़ित छह ग़ैर-मुसलिम अल्पसंख्यक समूहों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है।

देश में इतने विरोध-प्रदर्शन और जेल में भरे जा रहे हज़ारों लोगों की चिंताओं को दरकिनार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने पास आई याचिकाओं को तुरंत सुनने का कोई कारण नहीं देखा और सुनवाई की अगली तारीख़ 20 जनवरी तय की है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन पर शिकंजा कसने के लिए राज्यों में धारा 144 लागू करने, इंटरनेट निलंबित करने, प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लेने और पुलिस द्वारा दमनात्मक कार्यवाही के बावजूद अदालतें सुन्न पड़ी हैं। बीजेपी शासित राज्यों उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चला दीं, देश भर में कम से कम 25 लोग मारे गए। मृतकों में उत्तर प्रदेश के वाराणसी का एक आठ वर्षीय बालक भी शामिल है।

पुलिस की बर्बरता के तमाम वीडियो सामने आए हैं, जहाँ पुलिस कर्मियों को मुसलिम बहुल इलाक़ों में घरों में घुसते, लूटपाट और तोड़फोड़ करते हुए, पुरुषों की पिटाई करते, महिलाओं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करते हुए, बेतरतीब ढंग से सड़कों पर लोगों को घसीटकर हिरासत में लेते हुए, विश्वविद्यालय परिसरों के बाहर और अंदर लाठीचार्ज या गोलीबारी करते हुए देखा जा सकता है। दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में कई याचिकाएँ दायर करने के बावजूद, न्यायपालिका ने सरकार या पुलिस से कोई सवाल नहीं पूछा।

विचार से ख़ास

अयोध्या मामला

दशकों पुराना राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद का मामला मध्यस्थों और कोर्ट के बाहर सुलह-समझौते से जब नहीं निपटा तब आख़िरकार यह सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी बन गया। अदालत ने संतुलन करने का प्रयास किया और विवादित ज़मीन रामलला को देने और सरकार को मसजिद के लिए अयोध्या में ही 5 एकड़ ज़मीन देने का निर्देश दिया। विद्वत्समाज ने कई सवाल खड़े किए।

हैदराबाद मुठभेड़

पहले भी पुलिस मुठभेड़ के तमाम मामले संदिग्ध रहे हैं लेकिन हैदराबाद में बलात्कार आरोपियों को कथित मुठभेड़ में मारे जाने को असाधारण न्यायिक हत्या के रूप में देखा गया। 'त्वरित न्याय' के उन्माद में डूबी राष्ट्रीयता के बीच जब इस घटना की तीखी आलोचना हुई तब लगभग पूरे हफ़्ते चुप रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट जागा और इस मामले की स्वतंत्र जाँच के लिए स्वतंत्र समिति का गठन किया।

भारत में न्याय करने का अधिकार न्यायपालिका को दिया गया है। ऐसे में अगर पुलिस द्वारा 'त्वरित न्याय' का प्रचलन हुआ तो निःसंदेह न केवल न्यायपालिका का स्थान गौण होगा बल्कि निरंकुश पुलिस प्रशासन की स्थापना हो जाएगी।

इसलिए इस मामले में न्यायपालिका को तुरंत स्वतःसंज्ञान लेना चाहिए था और एक स्पष्ट गाइडलाइन की स्थापना करनी चाहिए।

ऐसा नहीं है कि 2019 में न्यायपालिका विफल ही रही। तमाम मामलों में न्यायपालिका ने सकारात्मक फ़ैसले सुनाकर अचंभे में भी डाला। गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने असम में इंटरनेट सेवाओं को बहाल करने का आदेश तब दिया जब किसी अन्य राज्य या अदालतों ने ऐसा करने के बारे में सोचा भी नहीं था। मद्रास उच्च न्यायालय ने समाज में बढ़ती मोरल पुलिसिंग के बीच कहा कि किसी अविवाहित जोड़े का होटल के एक कमरे में ठहरना कोई अपराध नहीं है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने धारा 144 के तहत तीन दिन के प्रतिबंध आदेश के लिए राज्य पुलिस और सरकार को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि वह अनुच्छेद 14 के तहत कोई मनमाना या अनुचित आदेश नहीं दे सकती है। अदालत ने इंटरनेट प्रतिबंध को ‘भाषण की स्वतंत्रता का उल्लंघन’ क़रार दिया।

चुनौतियाँ

फ़िलहाल वर्ष 2020 के सामने ढेरों चुनौतियाँ हैं। नए मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे यह साफ़ कर चुके हैं कि वह अपने पूर्ववर्तियों से बेहतर होंगे। जनवरी में नागरिकता संशोधन अधिनियम की संवैधानिकता का परीक्षण होना है। साथ ही मुमकिन है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का पेच भी सुलझाना पड़े। सबरीमाला पर भी सुनवाई और फ़ैसला लंबित है जो न्यायपालिका के सामने 'समानता के अधिकार' को स्थापित करने के मार्ग में एक बड़ी चुनौती होगी। कश्मीर के नागरिकों को भी न्यायपालिका के निष्पक्ष फ़ैसले का इंतज़ार है। इसके अलावा न्यायपालिका पर भारत की स्वायत्त जाँच एजेंसियों की साख बचाने का दारोमदार भी है। वर्ष 2019 में न्यायपालिका का जो भी रवैया रहा हो, उम्मीद है कि वर्ष 2020 में वह स्वतंत्र व निष्पक्ष रहेगी।

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बीना पाण्डेय
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