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सिपाही अमित की मौत, अस्पतालों की जाँच से क्यों भाग रहे हैं केजरीवाल?

कोरोना के साथ जंग में जिस तरह कोरोना योद्धाओं को सम्मानित करने के लिए देश भर में थालियां-तालियां बजाई गईं, दीये जलाए गए या उन पर पुष्प वर्षा की गई, उस सारी वंदना के बाद अगर दिल्ली में एक सिपाही की कोरोना से इसलिए मौत हो जाती है कि उसे कोई अस्पताल दाखिल नहीं करता तो फिर यह सवाल ज़रूर उठता है कि आखिर क्या वह सब सिर्फ दिखावा या पब्लिसिटी स्टंट था। 

यह सवाल इसलिए उठता है कि जब सिपाही अमित को नहीं बचाया जा सका तो फिर आख़िर आम आदमी कहां जाएगा। एक ग़रीब आदमी जिसके पीछे न पुलिस का रौब है और न ही पहुंच, उसकी तो कोई सुनता भी नहीं है। 

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इसीलिए तो कभी कोई बच्ची एक वीडियो वायरल करती है कि उसके पिता को सरकारी अस्पताल में न दवाई मिली है और न खाना। वीडियो वायरल होने के बाद सरकार की नींद तो खुलती है लेकिन सिर्फ यह जताने के लिए कि हमारे इंतजाम ठीक-ठाक हैं।

सिपाही अमित की मौत के फौरन बाद दिल्ली सरकार की भी जैसे नींद खुल गई। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन्हें शहीद माना और शहादत के लिए एक करोड़ रुपये देने की घोषणा की। यह उन्होंने इसलिए किया कि कहीं दिल्ली सरकार की पोल न खुल जाए।

आख़िर केजरीवाल ने इस घटना की जांच के आदेश क्यों नहीं दिए। आख़िर क्यों अमित के साथी जब उसे एक-एक अस्पताल में लेकर जाते रहे तो उसे दाख़िल करने से इनकार किया जाता रहा। क्या यही दिल्ली सरकार की कोरोना से जंग का तरीक़ा है। केजरीवाल ने तो कहा था कि हमने पूरी रणनीति बना दी है। अगर दस हजार मरीज आएंगे तो भी हम उन्हें अस्पतालों में दाख़िल करेंगे लेकिन सच्चाई यह है कि जब तीन हज़ार मरीज भी नहीं थे, तब भी लोगों को अस्पताल में दाख़िला नहीं मिल रहा था।

अमित भारत नगर थाने में तैनात था। वह सोमवार 4 मई को ड्यूटी पर गया था। जब वापस लौटा तो उसे बुखार था। वह मूल रूप से सोनीपत का रहने वाला था और दिल्ली के गांधी विहार में दो और सिपाहियों अजीत और नवीन के साथ किराए पर कमरा लेकर रहता था। रात को उसने बुखार की दवाई ली और सो गया लेकिन रात दो बजे के करीब उसे दम घुटता महसूस हुआ। उसने अपने साथियों को जगाया तो उन्होंने गर्म पानी और चाय पिलाई। इससे उसे कुछ राहत मिली लेकिन उसकी तबीयत लगातार ख़राब हो रही थी। 

अस्पताल भेजते रहे इधर से उधर

5 मई को उसके साथी अमित को सबसे पहले हैदरपुर कोरोना सेंटर में भर्ती कराने के लिए ले गए। उन्हें बताया गया कि इस सेंटर पर सिर्फ टेस्ट ही होता है। इस पर सेंटर वालों ने उन्हें आंबेडकर अस्पताल भेज दिया। इस अस्पताल में अमित को दाख़िल करने के बजाय कहा गया कि यहां भर्ती नहीं किया जा सकता, आप उसे दीपचंद बंधु अस्पताल ले जाओ। 

यह अस्पताल उसी इलाक़े में आता है, जहां अमित का थाना पड़ता है। साथी सिपाहियों ने एसएचओ को सूचित किया तो एसएचओ ने अस्पताल में नियुक्त ड्यूटी अफ़सर की जिम्मेदारी लगा दी कि अमित को दाख़िल कराओ लेकिन ड्यूटी अफ़सर भी कुछ नहीं कर पाया। वहां से उसे कुछ दवाई देकर टेस्ट के लिए अशोक विहार सेंटर में भेज दिया गया। 

कोई भर्ती करने को तैयार नहीं 

अशोक विहार सेंटर पहुंचने पर अस्पताल के स्टाफ़ ने कहा कि एक दिन में जितने टेस्ट हो सकते थे, कर लिए गए हैं। अब कोई और टेस्ट नहीं किया जाएगा। तब तक दोपहर के 12 बज चुके थे और अमित की हालत लगातार ख़राब हो रही थी। किसी तरह पुलिस का दबाव डालकर टेस्ट तो हुआ लेकिन अमित को भर्ती तब भी नहीं किया गया। डॉक्टरों ने साफ तौर पर कहा कि यहां अमित को कोई इलाज नहीं मिल सकता। यहां तक कि खाने के इंतजाम भी उसे खुद ही करना पड़ेगा। 

सिपाहियों को यही सलाह दी गई कि अमित को वापस कमरे पर ले जाओ। निराश होकर साथी सिपाही अमित को वापस कमरे पर ले आए जहां पहुंचने पर उसकी हालत और भी खराब हो चुकी थी। तब सिपाही उसे आरएमएल अस्पताल ले जाने के लिए निकले लेकिन रास्ते में ही तड़पते हुए अमित ने दम तोड़ दिया। 

जांच क्यों नहीं कराते केजरीवाल?

इस सारी घटना का जिक्र अमित को अस्पताल ले जाने वाले एक सिपाही ने खुद मोबाइल पर बातचीत के दौरान किया है और इसका ऑडियो वायरल हो रहा है। ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा एक्टिव आम आदमी पार्टी ने या उनकी सरकार के किसी मंत्री, विधायक या कारिंदे ने इसे नहीं सुना होगा। इसके बावजूद सरकार की तरफ से जांच का आदेश नहीं दिया गया। 

वायरल ऑडियो में पुलिसवालों की बेबसी साफ झलकती है, बेचैनी समझ में आती है। फरवरी के दिल्ली दंगों में मारे गए आईबी के जवान अंकुर शर्मा की सम्मान राशि घोषित करने में तो सरकार को दो महीने से ज्यादा का समय लग गया लेकिन अमित के मामले में यह राशि तुरंत घोषित कर दी गई क्योंकि जल्दी इस बात की है कि कहीं यह मुद्दा न बन जाए कि आख़िर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में हो क्या रहा है। 

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रोजाना ऐसी ख़बरें आ रही हैं, जब पता चलता है कि किसी कोरोना पीड़ित को अस्पताल में दाख़िल नहीं किया गया। दयानंद विहार के एक बुजुर्ग को भी इसी तरह दाख़िला नहीं मिला। बाद में इस इलाक़े में छह और मरीज आ गए तो इलाक़े को सील करना पड़ा। 

अगर अमित की मौत इसलिए हुई कि अस्पतालों की हालत बहुत लचर है तो ऐसे इंतजाम किए जाएं कि कोई और ऐसा ही अमित तड़पकर जान न दे दे लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि सरकार को खुद सारे हालात का पता है।

लगातार शिकायत कर रहे डॉक्टर्स

एलएनजेपी, पंत अस्पताल, जीटीबी अस्पताल, दिल्ली कैंसर अस्पताल के डॉक्टर तो खुलकर सामने आ चुके हैं और कह चुके हैं कि अस्पतालों में डॉक्टरों की सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं किए गए। यहां तक कि उनके खाने का भी पर्याप्त प्रबंध नहीं किया गया। इसका सबूत यह भी है कि दिल्ली का 400 से ज्यादा मेडिकल स्टाफ़ कोरोना से पीड़ित हो चुका है।

बात सिर्फ दिल्ली की ही नहीं है, यूपी के शहर आगरा में दैनिक जागरण के वरिष्ठ पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ की भी कोरोना से मौत हो चुकी है। दिल्ली पुलिस के ही 75 अफ़सर और जवान कोरोना के मरीज हैं। सीआरपीएफ़, आईटीबीपी और बीएसएफ़ जैसी फोर्स जो कि कोरोना से योद्धा के रूप में लड़ रही है, उसके भी सैकड़ों जवान अब तक कोरोना की जद में हैं। 

ये सारे लोग इसलिए कोरोना की चपेट में आए क्योंकि वे जान की बाजी लगाते हुए अपने काम में जुटे रहे। जब इन योद्धाओं के इलाज के लिए ही इंतजाम नहीं हैं तो फिर कैसे मान लिया जाए कि देश में आम आदमी के इलाज की कोई व्यवस्था है।

यह सच है कि अमेरिका जैसे विकसित देश भी कोरोना का सामना नहीं कर पाए लेकिन हमारे यहां तो अभी कोरोना उस लेवल तक पहुंचा ही नहीं है। अगर दिल्ली में 6 हजार मरीजों को ही सरकार नहीं संभाल पा रही है और कोरोना योद्धाओं को ही ऐसी मौत मरना पड़ रहा है तो फिर आने वाले दिन कितने मुश्किल भरे होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 

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दिलबर गोठी
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