फ़ैज़ को बख़्श दें। साहित्य, संगीत, अदब को नफ़रत और घृणा से बाहर रखें। फै़ज़ अहमद फ़ैज़ अदब की दुनिया में शायरी के ज़रिए क्रांति का प्रतीक हैं। फै़ज़ की क़लम जब भी चली, मजलूमों के लिए चली। गुरबत में रहने वालों के लिए चली। तानाशाही के ख़िलाफ़ चली। लोकतंत्र के लिए चली। उनकी क़लम सदा ही कविता की दुनिया में इंक़लाब के रंग भरती चली।
जब भी तानाशाही बढ़ेगी, आ खड़े होंगे फ़ैज़, नागार्जुन, दिनकर, दुष्यन्त
- विचार
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- 29 Mar, 2025

आईआईटी कानपुर में फ़ैज़ की एक नज़्म पर उठा विवाद इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि आईआईटी देश के सबसे उत्कृष्ट शैक्षिक संस्थानों में से एक जाना जाता है। अगर यही सोच चार सौ साल पहले कबीर के वक़्त होती तो कबीर भी आज थाने में बंद होते। इस धार्मिक जातीय उन्माद से तो तुलसी दास भी नहीं बचते। इस हिसाब से उन पर दलित एक्ट के तहत मुक़दमा चलता। वे जेल में होते।
सरकारों और व्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखना कवियों का पुण्य मक़सद होता था। इसमें नफ़रत और धर्म मत ढूँढिए। जो लोग साहित्य को नहीं जानते, कविता के धर्म से अनजान हैं, साहित्य के बिम्ब प्रतीकों को नहीं समझते वही इस तरह की मूर्खता और कटुता की बात करते हैं। सो हिंदू, मुसलमान का झगड़ा वोट बैंक तक ही रखना चाहिए। साहित्य को इस दलदल में न घसीटें तो बेहतर होगा। फ़ैज़ और उनकी मशहूर नज़्म के साथ आज हो रहा है, अगर यही सोच चार सौ साल पहले कबीर के वक़्त होती तो कबीर भी आज थाने में बंद होते। क्योंकि वे भी ‘जो घर फूँकें आपना चले हमारे साथ’ की उद्धोषणा कर रहे थे। इस सूफ़ीवादी एलान को भी हिंसा फैलाने की सामग्री मान लिया जाता।