ज़मीनी युद्धों को जीतने के लिए हमारे पास चाहे जितनी बड़ी और ‘सशक्त’ सेना हो, कूटनीतिक रूप से हारने के लिए बस एक ‘कमज़ोर’ बयान ही काफ़ी है! क्या प्रधानमंत्री के केवल एक वक्तव्य ने ही देश को बिना कोई ज़मीनी युद्ध लड़े मनोवैज्ञानिक रूप से हरा नहीं दिया है? क्या चीन ने अपना वह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लिया है जिसे वह हमसे लड़कर कभी भी हासिल नहीं कर सकता था? पंद्रह जून की रात हमारे बहादुर सैनिक कथित तौर पर निहत्थे भी थे और साथ ही उनके हाथ अनुशासन ने बांध भी रखे थे वरना गलवान घाटी में स्थिति 1962 के मुक़ाबले काफ़ी अलग हो सकती थी। हम अपने सैनिकों की शहादतों का बदला लेने के लिए अब क्या करने वाले हैं? क्या केवल चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से ही हमारे सारे ज़ख़्म भर जाएँगे?
क्या प्रधानमंत्री के बयान ने देश को मनोवैज्ञानिक रूप से हरा नहीं दिया है?
- विचार
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- 21 Jun, 2020

गलवान के संवेदनशील मसलों पर वक्तव्य देने के लिए प्रधानमंत्री को सलाह कौन दे रहा है! विदेश मंत्री एस जयशंकर, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित कुमार डोभाल, या चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेन्स स्टाफ़ बिपिन रावत या फिर गृह मंत्री अमित शाह? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रधानमंत्री सुनते तो सबकी हैं पर करते और कहते वही हैं जैसा कि वह चाहते हैं, जैसी कि उनकी स्टाइल और उनका ‘राजधर्म’ उन्हें अंदर से निर्देशित करता है?