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आखिर 22 जनवरी को ही क्यों की गई प्राण प्रतिष्ठा? 

आज 22 जनवरी को राम मंदिर का उद्घाटन हो गया। मैं इसे उद्घाटन ही कह रहा हूँ क्योंकि तमाम हिंदू धर्म शास्त्रों के जानकार कह रहे हैं कि यह समय किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए शुभ नहीं है। दरअसल, 25 तारीख़ को पूस माह की पूर्णिमा है। तब तक इस तरह का धार्मिक आयोजन नहीं हो सकता। एक सवाल यह उठता है कि क्या राम मंदिर ट्रस्ट और प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर विचार नहीं किया होगा? क्या उन्होंने धर्माचार्यों से सलाह नहीं ली होगी, उनसे नहीं पूछा होगा? जाहिर तौर पर ऐसा उन्होंने किया होगा। फिर भी अगर 22 जनवरी को ही प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन हो रहा है तो इसका अपना मतलब है और मकसद भी।

ज्यादातर विश्लेषकों और विपक्षी दलों ने इसका संबंध आने वाले लोकसभा चुनाव से जोड़ा है। उनका मानना है कि मोदी के पास चुनाव में जाने के लिए कोई मुद्दा नहीं है। इसलिए वह राम मंदिर के सहारे चुनावी वैतरिणी पार करना चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नरेंद्र मोदी राम मंदिर को चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। लेकिन वे इस बात को बखूबी जानते हैं कि केवल राम मंदिर के सहारे चुनाव नहीं जीता जा सकता। मैं हमेशा इस बात को कहता रहा हूँ कि भारतीय जनता पार्टी कभी हिंदुत्व के सहारे चुनाव नहीं जीतती। 

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चुनाव जीतने के पीछे उसकी बेहतरीन सोशल इंजीनियरिंग है। विशुद्ध जाति की राजनीति। हिंदुत्व केवल सवर्ण जातियों के लिए कारगर है। राम मंदिर जैसे आयोजन से बीजेपी का सवर्ण वोट बैंक और ज्यादा मजबूत होगा। लेकिन दलितों और पिछड़ों को जोड़ने का यह नुस्खा नहीं है। 

विपक्ष को राम मंदिर के नैरेटिव में फँसाना और बुनियादी मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकना, राम मन्दिर आयोजन का एक कारण है। लेकिन यह काम तो 25 जनवरी के बाद भी हो सकता था। अगर फरवरी में मंदिर का उद्घाटन होता तो क्या लोकसभा चुनाव में उसका फायदा नहीं मिलता? इसीलिए असली सवाल यह है कि देशव्यापी आयोजन आखिर 22 जनवरी ही क्यों?

इसको डिकोड करने के लिए आरएसएस की वैचारिकी और उसके इतिहास की तरफ चलना होगा। नरेंद्र मोदी उसी आरएसएस के प्रचारक हैं, जिसने कभी भारतीय लोकतंत्र और संविधान को स्वीकार नहीं किया बल्कि इसका लगातार विरोध किया। आरएसएस की संकल्पना संवैधानिक लोकतंत्र की जगह हिंदू राष्ट्र बनाने की है। आरएसएस के साथ हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद जैसे संगठन भी खड़े थे। स्वाधीन भारत में भी आरएसएस ने कभी हिन्दू राष्ट्र के मकसद से इनकार नहीं किया। बल्कि इसके लिए निरंतर प्रयत्न चलता रहा। दलितों-आदिवासियों का उत्पीड़न और मुसलमानों- ईसाइयों की लिंचिंग इसी प्रयोजन का हिस्सा है। अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना और दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को सेवक और गुलाम बनाकर रखना है। उन्हें संसाधन और शिक्षा विहीन करना है। उनके विवेक और ज्ञान को कुंद करके संविधान और नागरिक अधिकारों के प्रति उनकी चेतना को खत्म करना है। नरेंद्र मोदी ने अपने पिछले 10 साल के कार्यकाल में हिंदू राष्ट्र की संकल्पना को बहुत बारीकी से आगे बढ़ाया है।
अविमुक्तेश्वरानंद और निश्चलानंद सरस्वती जैसे शंकराचार्यों के विरोध और आने से इनकार के बावजूद राम मंदिर का उद्घाटन 22 जनवरी को ही हुआ। क्या इस आयोजन को कुछ दिनों के लिए नहीं टाला जा सकता था?

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनने वाले राम मंदिर को भला कोई रोक सकता था! सरकार बदल जाती तब भी राम मंदिर पूर्ण होता। लेकिन अधूरे मंदिर के उद्घाटन के पीछे असली मक़सद कुछ और है। यह उद्घाटन हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ता हुआ एक कदम और है।

22 जनवरी को उद्घाटन के पीछे असली वजह है, गणतंत्र दिवस की छवि को धूमिल करना। इसीलिए यह आयोजन देश की आज़ादी के संकल्प, संविधान के मूल्य और गणतंत्र की अवहेलना है। गणतंत्र दिवस के ठीक पहले एक देशव्यापी आयोजन करना, जो बेहद भावनात्मक हो, जिसमें जश्न हो, दीप जलाए जाएँ। इस माहौल के जरिए ठीक 3 दिन बाद 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस समारोह को फीका बनाना है। आज पूरे देश में चारों तरफ भगवा झंडों की बहार है। क्या इस तरफ आपका ध्यान नहीं जाता कि चार दशक तक आरएसएस ने अपने कार्यालय पर तिरंगा क्यों नहीं नहीं फहराया? दरअसल, आरएसएस भगवा को राष्ट्रध्वज बनाना चाहती थी। आज के आयोजन में उसका ये मकसद भी कामयाब होता दिख रहा है। चौतरफा भगवा झंडों की बाढ़ में तिरंगे की शान को कम करने की रणनीति छिपी है।

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अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद देश के लिए दो तारीखें बुनियाद बनीं। 15 अगस्त यानी आज़ादी के जश्न की तारीख और 26 जनवरी यानी देश के नवनिर्माण की तारीख। इस लिहाज से 26 जनवरी देश के लोगों के लिए बहुत मायने रखती है। संविधान लागू होने की तारीख! संविधान की पहली पंक्ति है- 'हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य...'। ध्यातव्य है कि 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में भारत का संविधान पारित हुआ। लेकिन संविधान को लागू करने की तारीख 26 जनवरी 1950 तय की गई। इसके पीछे एक स्वर्णिम ऐतिहासिक कारण था। 

दरअसल, 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की मांग ही नहीं की गई बल्कि पूर्ण स्वराज पाने का संकल्प करते हुए 26 जनवरी 1930 को पहला स्वाधीनता दिवस मनाया गया। इस तारीख को अक्षुण्ण और अविस्मरणीय बनाए रखने के लिए संविधान लागू करने की तारीख 26 जनवरी 1950 तय की गयी। गणतंत्र का दूसरा मतलब है कि राष्ट्र का प्रधान कोई 'आनुवंशिक राजा' नहीं बल्कि लोगों के द्वारा चुना जाएगा। 'लोकतांत्रिक गणराज्य' ने किसी भी भारतीय नागरिक को 'राजा' बनने का अधिकार दिया। लोकतंत्र का राजा मतलब विधायक, सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री। संविधान ने हजारों सालों की दलितों वंचितों की गुलामी मिटा दी। संविधान निर्माता बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि, “मैंने रानियों की नसबंदी कर दी है। अब कोई राजा रानियों के पेट से नहीं बल्कि मतपेटियों से पैदा होगा।”

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26 जनवरी को यह गारंटी प्राप्त हुई कि भारत का शासन संविधान के जरिए संचालित होगा। लेकिन गौरतलब है कि जब 26 नवंबर 1949 को भारत का संविधान पारित हुआ, उसके ठीक 3 दिन बाद यानी 30 नवंबर 1949 को आरएसएस ने अपने मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में  संविधान की भर्त्सना ही नहीं की बल्कि उसे विदेशी तक करार दिया। यह सीधे तौर पर स्वाधीनता आंदोलन के संघर्षों और संकल्पों की अवहेलना थी और बतौर प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर का घोर अपमान। ऑर्गेनाइजर ने लिखा था, “भारत के संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है क्योंकि इसमें मनु की संहिताएं नहीं हैं।” यानी आरएसएस को मनुस्मृति के आधार पर निर्मित संविधान चाहिए था।

आज जब यह आयोजन होने जा रहा है तो इसके मायने समझने होंगे। जिस तरह से 15 अगस्त 1947 यानी स्वतंत्रता दिवस की स्मृतियों को मिटाने के लिए और हिंदू राष्ट्र के संकल्प को आगे बढ़ाने के लिए 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस मनाने की शुरुआत नरेंद्र मोदी सरकार ने की है, उसी तरह से गणतंत्र के इतिहास, उसके राष्ट्रव्यापी आयोजन और नागरिकों के अधिकार की गारंटी वाले संविधान को लागू करने की बुनियाद को कमजोर करने की साजिश की जा रही है।

(लेखक दलित चिंतक हैं)

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रविकान्त
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