हाल ही में दो बड़ी दिलचस्प घटनाएँ घटीं। इनमें से पहली घटना थी- माननीय सांसद का टेलीविजन सीरियल की ‘आदर्श बहू’ के यूनीफ़ॉर्म में संसद में पदार्पण और उनकी ट्रोलिंग। दूसरी, घटना थी -अठारह साल की ज़ायरा वसीम का अपने ‘ईमान’ की रक्षा में अर्ली रिटायरमेंट।

एक स्त्री के 'चयन का अधिकार' तभी तक बड़ाई के क़ाबिल है, जब तक वह किसी न किसी धर्म की रूढ़ियों के पैरों तले है और उसके पीछे समर्थन-अनुमोदन करती उन्मादी धार्मिकों की एक भीड़ खड़ी है। ऐसे में महिलाएँ कितनी आज़ाद हैं?
यहाँ सवाल अठारह साल की एक युवा से नहीं है, जो पिछले पाँच सालों से रूढ़िवादियों का दबाव सहते-सहते आख़िर हार गयी। उससे हम किसी आंदोलन या विद्रोह की उम्मीद क्यों करें? एक समाज के रूप में उसे सहारा देने में हम कितना सफल रहे हैं? यहाँ कठघरे में उस समाज को रखे जाने की ज़रूरत है जो कभी धर्म, तो कभी नैतिकता की आड़ में लैंगिक-वर्चस्व की यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है। उन उदारवादी बुद्धिजीवियों पर भी बात किए जाने की ज़रूरत है जो औरतों के साथ हो रहे ज़ुल्मों पर महज़ इस डर से चुप्पी साधे रहते हैं कि कहीं ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने की उनकी साख पर ख़तरा न आ जाए।