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धर्म के नाम पर नफ़रत फैलाने वाले कैसे हो सकते हैं भगत सिंह के भक्त? 

शहीदे आज़म भगत सिंह का जन्मदिन क़रीब आते ही तस्वीरों और श्रद्धांजलि से सोशल मीडिया ख़ासतौर पर भर जाता है। नुकीली मूँछों और हैटधारी भगत सिंह की सुदर्शन तस्वीर को श्रद्धांजलि देने में पार्टी और विचारधारा का फ़र्क़ मिटता दिखता है। हद तो ये है कि बीजेपी से जुड़े लोग भी इस होड़ में आगे निकलते दिखना चाहते हैं जबकि भगत सिंह के विचार उनकी राजनीति और वैचारिक दर्शन से पूरी तरह उलट हैं।

क्या भगत सिंह महज़ मूर्ति या तस्वीर हैं जिस पर माला-फूल चढ़ाकर भुलाया जा सकता है? भगत सिंह के विचारों से ग़ुजरते हुए कोई भी उस आग को महसूस कर सकता है जो इस सवाल का जवाब ‘न’ में देती है। भगत सिंह ‘शहीदे आज़म’ ही इसलिए कहलाए कि उन्होंने क्रांतिकारी संगठन को वैचारिक दिशा दी और स्पष्ट किया कि उनके सपनों का भारत कैसा होगा! उन्होंने ‘व्यक्तिगत हत्याओं’ की वीरता की जगह शोषणमुक्त समाज की स्पष्ट वैचारिकी को क्रांतिकारी होने की कसौटी बनाया। लाला लाजपत राज की शहादत के बदले अंग्रेज़ अफ़सर सांडर्स की हत्या के लिए हुए ‘एक्शन’ में भगत सिंह निश्चित ही शामिल थे लेकिन जल्दी ही उन्हें इसकी निर्थकता का अहसास हो गया था और वे ‘बुलेट नहीं बुलेटिन’ की वक़ालत करने लगे थे। केंद्रीय असेंबली में उन्होंने जो बम फेंका था, उसका मक़सद भी किसी की जान लेना नहीं, ‘बहरे कानों’ को सुनाने के लिए महज़ ‘धमाका’ करना था। वे साफ़ तौर पर कहते हैं, “बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की तलवार तो विचारों की सान पर तेज़ होती है।“

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भगत सिंह आर्थिक और मानसिक शोषण दोनों के ही विरुद्ध थे। सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ वे विद्यार्थी जीवन से ही अलख जगाते रहे और पूँजीवाद को नष्ट करके समाजवाद की स्थापना करना उनका लक्ष्य था। ऐसे समय जब समाजवाद और सेक्युलरिज़्म दोनों ही सत्ता के प्रचारतंत्र की नज़र में ‘निंदनीय’ हो चुके हैं, यहाँ तक कि इन्हें संविधान की प्रस्तावना से भी निकालने का षडयंत्र हो रहा है, तब यह बताना ज़रूरी हो जाता है कि ऐसा करना भगत सिंह के सपनों की हत्या करना है। ऐसा करने वालों का भगत सिंह की माला जपना बेईमानी से कम नहीं।

भगत सिंह का दौर सोवियत क्रांति के प्रभाव का दौर था। भगत सिंह ख़ुद लेनिन से बेहद प्रभावित थे और भारत में भी समाजवादी क्रांति का सपना देखते थे। ये संयोग नहीं कि उनके वैचारिक हस्तक्षेप की वजह से ही ‘हिदुस्तान रिपब्लिक आर्मी’ यानी क्रांतिकारी दल ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपबल्किन एसोसिएशन’ (एच.एस.आर.ए) में बदला था।

नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम जारी अपने पत्र में भगत सिंह लिखते हैं, “ हम समाजवादी क्रान्ति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी ज़रूरत राजनीतिक क्रान्ति की है। यही है जो हम चाहते हैं। राजनीतिक क्रान्ति का अर्थ राजसत्ता (यानी मोटे तौर पर ताक़त) का अंग्रेजी हाथों में से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अन्तिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो। और स्पष्टता से कहें तो- राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में आना। इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा। यदि क्रान्ति से आपका यह अर्थ नहीं है तो महाशय, मेहरबानी करें और ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने बन्द कर दें।"
‘इन्क़लाब जिंदाबाद’ भगत सिंह का सबसे प्रिय नारा था लेकिन इसे वे अमूर्त नहीं रहने देना चाहते थे। उनके लिए इसका अर्थ सीधे-सीधे मज़दूरों और किसानों यानी सर्वहारा वर्ग का शासन था।
समाजवाद का सीधा अर्थ उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण होता है। तो उत्पादन के साधनों पर निजी पूँजी का नियंत्रण दिलाने में जुटा मोदीराज किस क़दर भगत सिंह के विचारों के ख़िलाफ़ खड़ा है, समझा जा सकता है। 21वीं सदी में अगर समाजवाद को शास्त्रीय ढंग से लागू करना संभव नहीं लग रहा है, तो कम से कम ग़ैरबराबरी को कम करते जाना तो इसका अर्थ हो ही सकता है। लेकिन अगर भारत के एक फ़ीसदी अमीरों के हाथों देश की कुल संपत्ति का 40 फ़ीसदी पहुँच गया हो और 50 फ़ीसदी आबादी देश की महज़ तीन फ़ीसदी संपत्ति पर ग़ुज़र करने पर मजबूर हो तो असमानता की भयावहता को समझा जा सकता है। यह याराना पूँजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज़म की नीतियों का स्पष्ट नतीजा है।
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भगत सिंह का समाजवाद सेक्युलरिज़्म के साथ नत्थी है। यानी एक ऐसे राज्य की स्थापना जो लोगों के ‘इहलोक’ को बेहतर बनाये न कि परलोक का प्रपंच रचे। उनके तमाम लेखों में सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक राजनीति सीधे निशाने पर रही। साथ ही सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली पत्रकारिता भी। 1928 में पंजाबी पत्रिका ‘कीरती’ में ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ शीर्षक से छपे अपने लेख में भगत सिंह सांप्रदायिक नेताओं के अलावा अख़बारों को भी सांप्रदायिकता फैलाने का दोषी मानते हैं। वे लिखते हैं, “दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम हैं जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।.. अख़बार वालों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?”
भगत सिंह जिस भारत को लेकर आशंकित थे वह आज सामने है और सांप्रदायिक पत्रकारिता का भारत को वैसा बनाने में निश्चित ही बड़ी भूमिका है। मौजूदा पत्रकारिता न सिर्फ़ शासकों की चारण है बल्कि उसने देश को अंधविश्वास और सांप्रदायिक कट्टरता में झोंक देने की जैसे सुपारी ले ली है।
भगत सिंह की नास्तिकता का पक्ष उन्हें तमाम रूमानी क्रांतिकारियों की पाँत से बिल्कुल जुदा हैसियत देता है। 23 मार्च 1931 को फाँसी दिये जाने के कुछ पहले जेल में उन्हें धर्म का पाठ पढ़ाने की कई तरह से कोशिश हुई थी जिसके जवाब में उन्होंने अपना मशहूर लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ लिखा था। उन्होंने सृष्टि को चलाने वाले किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर को महज़ कल्पना क़रार देते हुए विज्ञान के ज़रिए ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्यों को समझने की सलाह दी थी। उन्होंने लिखा, “यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नहीं है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। ...नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भर्त्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट! एक चंगेज खां ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खां से प्रत्येक क्षण अधिक है?”
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यही नहीं, वे इस लेख में ये भी लिखते हैं, “उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं? मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूं कि वह लागू करे! जहां तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं! वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं!

 

विभूतियों के विचारों को मार कर मूर्ति बनाने देने के षड्यंत्र के शिकार भगत सिंह भी हो रहे हैं। लेकिन भगत सिंह के लेखों के संकलन से लेकर जेल डायरी तक प्रकाशित हो चुकी है जो भगत सिंह की वैचारिकी को नयी पीढ़ी तक पहुँचा रही है। भगत सिंह का नाम आज भी नौजवान पीढ़ी में रोमांच भरता है। देश में असमानता और अन्याय के बढ़ते दौर में ये विचार रोशनी देते हुए कुछ कर ग़ुज़रने की इच्छा भरते हैं। भगत सिंह के जन्मदिन और शहादत दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करने की खानापूरी करने वाले ये बात जितनी जल्दी समझ लें, उतना अच्छा!

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पंकज श्रीवास्तव
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