loader

बीएसपी के उभार से किस पार्टी को होगा सबसे अधिक नुक़सान? 

तीन चरण की 172 सीटों पर मतदान के बाद यूपी की सियासी सूरत अब धीरे-धीरे साफ होने लगी है। पहले दो चरण के चुनाव में जाट और मुसलिम बहुल इलाके में आरएलडी और सपा गठबंधन ने बीजेपी का मजबूती से मुकाबला किया। इसमें सपा गठबंधन की लहर दिख रही थी। लेकिन तीसरे चरण में यह लहर थमती नजर आई। अब बीजेपी की चुनावी भाषा ज्यादा कठोर और नफरती होती जा रही है। 

पश्चिमी यूपी में कैराना और मुजफ्फरनगर के बहाने मुसलमानों का पैशाचीकरण करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश की गई। सपा पर मुसलमानों को संरक्षण देने के खुलेआम आरोप लगाए गए।

कानून व्यवस्था जैसे सवाल को भी सांप्रदायिक भाषा में पेश किया गया। लेकिन किसानों की नाराजगी से उपजी जाटों की गोलबंदी के आगे बीजेपी का सांप्रदायिक कार्ड नहीं चल सका। आलम यह था कि बीजेपीई नेता चुनाव प्रचार भी आसानी से नहीं कर सके। यह नाराजगी बूथ के आगे मतदान केंद्रों पर भी दिखी। 

ताज़ा ख़बरें

बीजेपी को सबक सिखाने के लिए किसानों नौजवानों ने खुलकर मतदान किया। योगी हुकूमत म़े प्रताड़ना के शिकार रहे कर्मचारियों ने पोस्टल बैलेट के जरिए बड़े पैमाने पर मतदान किया। बड़े पैमाने पर पोस्टल बैलट को सपा और बीएसपी द्वारा पुरानी पेंशन की बहाली के लिए किए गए मतदान के रूप में देखा जा रहा है। देखने में आया है कि तीसरे दर्जे के सरकारी कर्मचारी इस बार खुलकर बीजेपी के खिलाफ मतदान ही नहीं कर रहे हैं बल्कि माहौल भी बना रहे हैं। 

तीसरे चरण में कांटे का मुकाबला

तीसरे चरण में कानपुर मंडल, बुंदेलखंड, मध्य यूपी के यादव बहुल इलाके में हुए मतदान में मुकाबला कांटे का दिखाई दिया। सपा और बीजेपी के साथ बीएसपी भी मजबूती से लड़ती नजर आई। खासकर बुंदेलखंड, कानपुर देहात और मध्य यूपी के पश्चिमी इलाके में बीएसपी अधिकांश सीटों पर मुकाबले में है। बुंदेलखंड बीएसपी का पुराना गढ़ रहा है। इस बार बीएसपी यहां अपने पुराने प्रदर्शन को दोहराती हुई दिख रही है। 

BSP and dalit politics in UP election 2022  - Satya Hindi
बीएसपी के अचानक हुए उभार के कारण मीडिया विमर्श से लेकर के चौक चौराहों की बतकही में भी यह सवाल उछाले जा रहे हैं कि बीएसपी किसे नुकसान पहुंचा रही है? जाहिर है, इसी से जुड़ा सवाल है कि बीएसपी किसकी मदद कर रही है? ताज्जुब है, यह सवाल नहीं उठता कि क्या बीएसपी के पास सत्ता की चाबी हो सकती है? अव्वल तो फायदा और नुकसान वाले सवाल बेमानी हैं। 
हम मायावती की निष्क्रियता और खामोशी पर सवाल उठा सकते हैं। बेशक, यह सवाल होने भी चाहिए। लेकिन किसी पार्टी की मदद करने या नुकसान पहुंचाने का आरोप मढ़कर उनकी राजनीति को प्रश्नांकित करना कतई उचित नहीं है।

जाटव मायावती के साथ 

हालांकि इस सवाल पर विचार हो सकता है कि बीएसपी के लड़ाई में आने से कौन सी पार्टी कमजोर हो रही है? गौरतलब है कि बीएसपी के पास 11-12 फीसदी जाटव जाति का मजबूत आधार है। पिछले चुनावों में बीएसपी को मुसलिम सहित अन्य जातियों का भी वोट मिलता रहा है। लेकिन मायावती की खामोशी और पार्टी छोड़कर गए नेताओं के कारण बीएसपी का समर्थक निराश हुआ है। लेकिन उनकी खामोशी का एक लाभ यह हुआ कि बीएसपी के प्रति किसी भी जाति-समाज की कोई नाराजगी नहीं है।

मायावती से गठबंधन टूटने के बाद अखिलेश यादव ने दलितों पर फोकस किया था। उन्होंने पार्टी कार्यालय में डॉक्टर अंबेडकर की तस्वीर लगाई और बाबा साहब वाहिनी नामक संगठन बनाकर दलितों को एक संदेश देने की कोशिश की। लेकिन अखिलेश ने ज्यादातर जाटव जाति के नेताओं को ही जोड़ने का प्रयास किया। इसके अतिरिक्त इंद्रजीत सरोज को लाकर पासी जाति को संदेश दिया। चुनाव में सपा ने पासी जाति के 26 प्रत्याशी बनाए हैं। सपा को इसका फायदा भी मिलते हुए दिख रहा है। गैर जाटव-पासी दलित जातियों को सपा द्वारा तवज्जो नहीं दिए जाने के कारण ऐसा लग रहा था कि ये जातियां नाराजगी के बावजूद बीजेपी को ही वोट करेंगी। 

लेकिन बीएसपी के उभार के कारण दलित मायावती के साथ जाते हुए दिख रहे हैं। पासी जरूर सपा के साथ है। दलित जातियों के साथ जुड़ने से जहाँ बीएसपी मजबूत हुई है, वहीं बीजेपी का दलित आधार दरक गया है।

जाहिर है, इससे बीजेपी का नुकसान होना तय है। इसीलिए सरकार समर्थित मीडिया और बीजेपी ने बीएसपी को राजनीतिक विमर्श का हिस्सा नहीं बनने दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि खुद मायावती ने मीडिया के जरिए बीएसपी को विमर्श का हिस्सा क्यों नहीं बनाया? 

दरअसल, मायावती का मानना है कि उनका अधिकांश मतदाता गरीब और कामगार है। बीएसपी के आधार वोटर के पास टीवी की बहसें देखने और सुनने की फुर्सत नहीं है। बीएसपी का समर्थक-वोटर इन विमर्शों के जरिए प्रभावित नहीं होता। उसके लिए मायावती की एक अपील मायने रखती है। इसलिए टीवी बहस का हिस्सा बनने में मायावती की कोई दिलचस्पी नहीं है।

BSP and dalit politics in UP election 2022  - Satya Hindi
हां, यह जरूर है कि उन्होंने अपने कैडर को सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने के लिए प्रेरित किया है। व्हाट्सएप, फेसबुक और छोटे-छोटे वीडियो के जरिए पार्टी का प्रचार होता रहा है।
ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्या, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी, केशव देव मौर्या, लालजी वर्मा, राम अचल राजभर जैसे नेताओं को साथ लाकर अखिलेश यादव ने पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की कोशिश की है। लेकिन इस गोलबंदी के बावजूद स्थानीय स्तर पर पिछड़ी जातियों के अंतर्विरोध समाप्त नहीं हुए हैं।

पिछड़ी जातियों के इन नेताओं के प्रभाव क्षेत्र से बाहर मौर्या, कुर्मी, निषाद जैसी जातियां सपा के बजाय बीजेपी में लौट सकती थीं। लेकिन बीजेपी सरकार से नाराजगी और बीएसपी जैसे विकल्प के आने से बीजेपी को नुकसान हुआ है। 

जाहिर है, सपा में यादवों के वर्चस्व का आरोप लगाकर बीजेपी इन जातियों को अपने खेमे में लाने में कामयाब हो सकती है। लेकिन मायावती ने इन जातियों के मजबूत प्रत्याशियों को उतारकर बीजेपी के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। पिछड़ी जातियों के संदर्भ में भी कहा जा सकता है कि नुकसान सपा के बजाय बीजेपी का होगा। 

उत्तर प्रदेश से और खबरें

बीएसपी संग जाएंगे ब्राह्मण?

इसी तरह से योगी आदित्यनाथ से नाराज ब्राह्मण मतदाताओं के लिए बीएसपी विकल्प बन रही है। पूर्वांचल में हरिशंकर तिवारी के प्रभाव क्षेत्र के अलावा अधिकांश क्षेत्रों में ब्राह्मण बीएसपी के साथ जा सकता है। हालांकि 70 फ़ीसदी ब्राह्मण आज भी बीजेपी के साथ है। ठीक इसी तरह, कानून व्यवस्था के सवाल पर व्यवसायी वर्ग भी सपा के बजाय बीएसपी को ज्यादा पसंद करता है। यह वर्ग आमतौर पर बीजेपी का वोटर है। लेकिन महंगाई और धीमी अर्थव्यवस्था से त्रस्त बनिया वर्ग भी बीजेपी से नाराज है। 

इन हालातों में बीएसपी उसकी पहली पसंद हो सकती है। मुख्तसर, बीएसपी के उभार से बीजेपी को ज्यादा नुकसान हो रहा है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक बीएसपी के लड़ाई में आने से बीजेपी का तकरीबन 10 फ़ीसदी वोट कम हो सकता है।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
रविकान्त
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

उत्तर प्रदेश से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें