संसदीय लोकतंत्र की तमाम ख़ामियों और नाकामियों के बावजूद मैं इसे भारत के संदर्भ में अपरिहार्य व्यवस्था मानता हूं- शायद यह हमारे संस्कारों में इतना रच-बस गई है कि हमारे भीतर चाहे जितने भी फासीवादी तत्व हों, वे जैसे भी वोट जुटाएं, लेकिन उन्हें संसदीय बहुमत की मान्यता शासन के लिए ज़रूरी लगती है।
‘अपरूपा’ के जरिए माओवाद की पड़ताल: ये कहानियां नहीं, घुटती हुई सच्चाइयां हैं!
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- 1 Aug, 2025

पद्मा कुमारी के कहानी संग्रह अपरूपा के माध्यम से भारत में नमीवाद और उसके वर्तमान स्वरूप को समझना
पद्मा कुमारी के कहानी संग्रह ‘अपरूपा’ के ज़रिए वरिष्ठ पत्रकार प्रिय दर्शन ने माओवादी आंदोलन के सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय पहलुओं को समझने की कोशिश की है। जानें माओवाद की वर्तमान हालत और इसके पीछे छिपे सच को।
इसी संस्कार की वजह से किसी बदलाव या क्रांति के लिए हिंसा का तरीक़ा मुझे स्वीकार्य नहीं होता। लेकिन इसकी दो-तीन वजहें और हैं। पहली बात तो यही लगती है कि हिंसा चाहे जितने भी बड़े मक़सद के लिए की जाए, वह हिंसा करने वाले को कुछ बदल डालती है। हम कलम थामते हैं तो कुछ और होते हैं, बंदूक थामते हैं तो कुछ और हो जाते हैं। कविता लिखते हैं तो कुछ और होते हैं और गोली चलाते हैं तो कुछ और हो जाते हैं। रूस और चीन जैसे कामयाब हिंसक क्रांतियों वाले देशों का अनुभव बताता है कि वहां हुक़्मरान किस तरह बदले और अवाम को अपने पुराने कृत्यों पर कैसी हैरानी होती है। चीन के लेखक अब सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर हुए दमन और उत्पीड़न को लेकर पश्चाताप और अफ़सोस में डूबे दिखते हैं। रूस में स्टालिन के शासन काल का एक पक्ष ऐसा स्याह है कि उसे कम्युनिस्ट भी याद करने से डरते हैं। वैसे भी रूस साम्यवादी नहीं बचा और चीन का साम्यवाद पूंजीवाद से गठजोड़ करके मज़बूत हुआ, सर्वहारा की क्रांति से नहीं।