संसदीय लोकतंत्र की तमाम ख़ामियों और नाकामियों के बावजूद मैं इसे भारत के संदर्भ में अपरिहार्य व्यवस्था मानता हूं- शायद यह हमारे संस्कारों में इतना रच-बस गई है कि हमारे भीतर चाहे जितने भी फासीवादी तत्व हों, वे जैसे भी वोट जुटाएं, लेकिन उन्हें संसदीय बहुमत की मान्यता शासन के लिए ज़रूरी लगती है।