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प्रतीकात्मक तसवीर।

भोजन माता को भारत माता समझिए

सामाजिक न्याय का चक्का कैसे धीरे-धीरे घूमता हुआ अपना काम कर रहा है, इसे बीते हफ़्ते उत्तराखंड के चंपावत ज़िले की एक घटना से समझा जा सकता है। यहां के सूखीढांग इंटर स्कूल में एक दलित महिला को नौकरी से निकाल दिया गया जो मिड डे मील तैयार करती थी। कुछ ही दिन पहले उसकी नियुक्ति हुई थी। लेकिन स्कूल के क़रीब 40 सवर्ण छात्रों ने उसके हाथ का बना खाना खाने से इनकार कर दिया था। 

इस इनकार में छात्रों के अभिभावकों की सहमति भी शामिल थी। जबकि इस महिला की नियुक्ति कुछ ही दिन पहले कई उम्मीदवारों के बीच हुई थी। इस नियुक्ति पर एतराज़ करने वालों की एक दलील यह भी थी कि जब उम्मीदवारों में एक सवर्ण महिला थी तो दलित महिला को इस ज़िम्मेदारी के लिए क्यों चुना गया। 

इन आपत्तियों के आगे सरेंडर करते हुए प्रशासन ने इस महिला की नियुक्ति रद्द करते हुए इसमें कुछ ‘नियमगत गड़बड़ियों’ का हवाला दिया। उसकी जगह एक सवर्ण महिला को चुन लिया गया।

कहानी यहां तक वही है जो हिंदुस्तान के गांवों-क़स्बों और शहरों में घटती रहती है। संविधान में सबकी सामाजिक बराबरी की अपरिहार्य व्यवस्था के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय समाज अपने जातिगत दुराग्रह छोड़ने को तैयार नहीं है।
कई स्कूलों में पहले भी मिड डे मील पकाने वाली दलित महिलाओं को बाहर करने की- या उनका बहिष्कार करने की घटनाएं सामने आ चुकी हैं।
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दलित छात्रों ने किया इनकार 

लेकिन चंपावत ज़िले में कहानी एक क़दम आगे बढ़ गई। वह उल्टी दिशा में भी चल पड़ी। इस बार सुखीढांग इंटर कॉलेज के दलित छात्रों ने सवर्ण महिला द्वारा पकाया गया भोजन खाने से इनकार कर दिया। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में छपी खबर के मुताबिक छठी से आठवीं तक के 23 दलित छात्रों ने सवर्ण महिला के हाथों बने मिड डे मील का बहिष्कार कर दिया। 

उन्होंने कहा कि अगर सवर्ण छात्र दलित महिला का बनाया हुआ खाना नहीं खा सकते तो दलित छात्र भी ऊंची जाति की महिला द्वारा पकाया हुआ खाना नहीं खाएंगे। 

यह कहानी में आया नया मोड़ है जो भरोसा दिला रहा है कि भारतीय समाज में भी ऐसे नए मोड़ आएंगे जो उसे अपनी जड़ता से बाहर आने पर मजबूर करेंगे। जातिवाद के विरुद्ध कम से कम एक सदी से संघर्ष चल रहा है। लेकिन वह अब तक नाकाम रहा है तो इसकी वजहें स्पष्ट हैं।

किसी भी सवर्ण से पूछिए तो वह बहुत स्पष्ट शब्दों में कहेगा कि वह जातिवादी नहीं है। उल्टे वह आज की राजनीति को- और इसके पहले चले मंडल आयोग से जुड़े आंदोलन को- नई सामाजिक दरारों का ज़िम्मेदार ठहराएगा। लेकिन दो सवालों के जवाब उसके पास नहीं होंगे। वह यह नहीं बता पाएगा कि उसके यहां शादी-ब्याह अब भी जातिगत घेरों के भीतर क्यों होते हैं, या अगर उनमें कुछ लचीलापन आया है तो वह उच्च वर्णों के बीच ही क्यों सीमित है। 

कहा जा सकता है कि शादी धीरे-धीरे व्यक्तिगत मामला होती जा रही है और उसमें जाति-वर्ण खोजना सही नहीं है, लेकिन फिर तमाम अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों में जातियों और उपजातियों तक की श्रेणियां कयों मिलती हैं।

दूसरा सवाल यही है कि क्या वह भी अब भी अपनी जातिगत श्रेष्ठता की ऐंठ छोड़ने को तैयार है? क्या वह दलितों के हाथ का भोजन करने को तैयार है? या जो ऐसा नहीं करते, उन्हें समझाने या संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक दंडित करने को तैयार है? 

उत्तराखंड के चंपावत ज़िले के एक स्कूल में जो हुआ था- या जो होता रहा है- वह संवैधानिक भावना को बिल्कुल अंगूठा दिखाने वाले सामाजिक पूर्वग्रह का नतीजा था।
निश्चय ही जिन बच्चों ने दलित महिला के हाथ का भोजन खाने से इनकार किया, उनको समझाया जाना चाहिए था। वे इतने छोटे रहे होंगे कि उनको सज़ा देने की बात सोचना फ़िजूल है, इसलिए भी कि सज़ा के हक़दार वे लोग हैं जिन्होंने ये ज़हर उनके भीतर बोया है, लेकिन उन लोगों को तो हर हाल में सज़ा मिलनी चाहिए जिन्होंने इस शिकायत पर दलित महिला को ही नौकरी से निकाल दिया। ऐसे लोग ख़ुद नौकरी में रहने लायक नहीं हैं। 
Dalit Bhojan Mata controversy of Uttarakhand and caste discrimination - Satya Hindi

सामाजिक न्याय की लड़ाई 

जाहिर है, सामाजिक न्याय की लड़ाई ऊंची जातियों की सदाशयता के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती। इस सदाशयता में आदर्श वाक्यों के अलावा कुछ नहीं है। बल्कि इस सवर्ण मेधा का अधिकतम बल यह साबित करने में लगता है कि जाति-पांति अगर बनी हुई है तो यह उनका दोष नहीं है, इसके लिए वह आरक्षण दोषी है जो बचपन से ही बच्चों को बांटने लगता है, इसके लिए वे छात्रवृत्तियां ज़िम्मेदार हैं जो कमज़ोर तबकों से आने वालों को मिलती हैं। उल्टे यह मेधा जैसे इल्ज़ाम लगाती है कि उनकी योग्यता का तिरस्कार करके उनके संसाधन दलितों और पिछड़ों को दिए जा रहे हैं। 

वह यह नहीं बताती कि दरअसल जिसे वह योग्यता कहते हैं, वह भी एक सामाजिक-आर्थिक उत्पाद है और उसके पीछे जन्म की पृष्ठभूमि से लेकर ट्यूशन, कोचिंग और डोनेशन तक का हाथ है। 

तो कुल मिलाकर मामला यह है कि बराबरी कोई सदाशयता में नहीं देता, उसे हासिल करना पड़ता है। उत्तराखंड के एक स्कूल के दलित बच्चों ने यह बात समझी है। उन्होंने बहिष्कार का उत्तर बहिष्कार से दिया है। यह एक तरह का सामाजिक प्रतिरोध है। ऐसे प्रतिरोध बढ़ने चाहिए। 

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बस कल्पना करें कि सामाजिक पायदानों पर पिछड़े माने जाने वाले लोग वे सारे काम कुछ दिन के लिए छोड़ दें जो वे करते हैं तो हमारी नागरिक व्यवस्था का क्या हाल होगा? 

लेकिन इन बच्चों के भीतर यह साहस आया कहां से? यह इस बात का इशारा है कि हालात अब बदल रहे हैं। पिछड़े और दलित सत्ता में भी हिस्सेदार हैं और सामाजिक तौर पर पहले से मज़बूत हो रहे हैं। उनके कमज़ोर हाथों को हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने मज़बूत ढंग से थामा है। 

यह प्रतिरोध अगर आगे बढ़ा तो उम्मीद कर सकते हैं कि सामाजिक स्तर पर यथास्थिति टूटेगी और बदलेगी।

मिड डे मील बनाने वालों के लिए जिसने भी गढ़ा हो, लेकिन बहुत सुंदर शब्द गढ़ा है- भोजन माता। मुझे यह भोजन माता भारत माता की याद दिलाती है। 

अगर आप इस भोजन माता से भेदभाव कर रहे हैं तो असल में भारत माता से भेदभाव कर रहे हैं। यह एक भावुक लगने वाला वाक्य भर नहीं है, उस सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ का आईना भी है जिसमें सबसे ज़्यादा भारत माता की जय बोलने वाले ही भारत माता को सबसे ज़्यादा लांछित करने का काम करते हैं। आप अगर दलित भोजनमाता को सम्मान देंगे तो भारतमाता को उसका वास्तविक सम्मान मिलेगा। 

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प्रियदर्शन
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