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दिल्ली में दंगा: भैया, आप लोग सुरक्षित हो?

चारों तरफ़ बढ़ता हुआ अंधकार बहुत तकलीफदेह है। लेकिन हम सबको अपनी-अपनी आस्था को अपने-अपने तरीक़े से लेकर आगे बढ़ना होगा। अपने घरों में, अपने पड़ोस में और अपने देश में। क्या ऐसे वक़्त में अतीत की बात करना बेमानी है? दस साल की उम्र में मैंने कैफी आज़मी का वह गीत गाया था- मैं हिंदुस्तान में हूँ, नयी जन्नत बनाएँगे।
सईद नक़वी

जब भी हिंदू-मुसलिम दंगे होते हैं तब सबसे पीड़ादायक होते हैं विदेश में रहने वाले मित्रों और रिश्तेदारों के संदेश। जब पाकिस्तान के हमारे रिश्तेदार हमसे पूछते हैं- भैया, आप सब लोग सुरक्षित हो- तब इससे ज़्यादा तकलीफ़देह बात और कुछ नहीं हो सकती।

ऐसे मौक़ों पर मशहूर फ़िल्मकार बर्गमैन की फ़िल्मों की याद हो आती है जब वह दुस्वप्न को पर्दे पर साकार करते हैं- जब रिश्तेदारों के चेहरे एक कोलाज की शक्ल में चीख रहे होते हैं।

इस पीड़ा को समझने के लिए किसी मनोविश्लेषक फ़्रॉयड की ज़रूरत नहीं है। 1980 के दशक तक पाकिस्तान से आने वाले मेरे चचेरे भाई-बहनों को हिंदुस्तानी ज़िंदगी के ‘रंग’ बहुत ही लुभावने लगते थे। उनकी अपनी ज़िंदगी मज़हब के खाँचों में कसी हुई थी। हालाँकि वे अमीर थे। एक बार पाकिस्तान में हमारे रिश्तेदारों से मिलकर हमारे भाई शन्ने ने वहाँ की ज़िंदगी को बहुत ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में बयाँ किया था- ‘अच्छी ही जगह है पर कुछ ज़्यादा ही मुसलमान रहते हैं।’

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आज के वक़्त में शन्ने की बातों को समझने की ज़रूरत है। रायबरेली के पास मुस्तफ़ाबाद नाम का एक कस्बा है जहाँ हम पले-बढ़े। वहाँ पर धर्म हमारे लिए इतना ज़रूरी था कि हमारे घर की दालान में एक मसजिद हुआ करती थी लेकिन हर साल कर्बला की जंग पर भाषण देने के लिए आने वाले पंडित बृजमोहन नाथ कछार के आने में कभी बाधा नहीं बनी। इसी तरह लखनऊ में हमारी ईद एक ख़ास तरीक़े से शुरू होती थी। बाबू महावीर प्रसाद श्रीवास्तव, जिनको हम बाबू कहा करते थे, हम बच्चों के हाथ में ईदी के तौर पर एक-एक रुपया रख दिया करते थे। इसी तरह जब मेरे पिताजी हज़रत अली के जन्मदिन का जश्न मनाते थे तो पड़ोस के मंदिर के महंत का आना लगभग ज़रूरी होता था।

शन्ने की बातों को और स्पष्ट करने के लिए एक और कहानी मेरे दिमाग़ में कौंधती है। बहुत पहले नई दिल्ली के तिलक मार्ग पर टाइम्स ऑफ़ इंडिया की स्वर्गीय नंदिता जज के बंगले पर होली का समारोह था और शायर अली सरदार जाफरी के साथ होली के उस मौक़े पर मैं भी मौजूद था। एक ऊँचे मंच पर पंडित बिरजू महाराज ढोलक लेकर बैठे थे। इस मौक़े पर महान कत्थक नृतक बिरजू महाराज झूमकर वाद्य यंत्रों पर संगीत का समाँ बाँध रहे थे और बृज से जुड़ी हुई बंदिशें गा रहे थे। बृज होली का पावन उत्सव कृष्ण, राधा और गोपियों के बगैर कैसे पूरा हो सकता है। 

पंडित बिरजू महाराज की बंदिशों ने ऐसा समाँ बाँधा कि सब मंत्रमुग्ध रह गये। यह वही बृज था जिसने रसखान को मंत्रमुग्ध कर दिया था और जिसने मौलाना हसरत मोहानी को बृज, अवधी और उर्दू में कृष्ण की महिमा के प्रति आकर्षित किया है। बिना बरसाने की यात्रा के उनका हज पूरा नहीं होता था। बरसाने यानी राधा का घर। यह वही हमारी परंपरा थी जिसने हमारी संवेदनाओं को आकार दिया था। ये वही संवेदनाएँ थीं जिसकी वजह से कृष्ण की लीलाओं से ओतप्रोत बिरजू महाराज के अभिनय ने सरदार जाफरी साहब और मुझको विस्मृत कर दिया था। कृष्ण की इन लीलाओं में राधा और कृष्ण के अद्भुत प्रेम का वर्णन था जिसमें राधा इज़हार भी करती हैं और इनकार भी। होली के रंग और गुलाल ने ऐसा समाँ बाँधा था जैसे चारों तरफ़ जादू-सा बिखरा हुआ हो। 

मैं सहसा बोल पड़ा था- ‘इसी तरीक़े से हमें ईद भी मनानी चाहिए।’ जाफरी साहब ने हैरत से मूझे घूरा था। सहसा मुझे अहसास हुआ कि मैंने कितनी बेवकूफी की बात कही है। ईद अब्राहम के बलिदान का उत्सव है, रुमानियत का नहीं है, जैसे कि हज़ारों सालों में दीवाली, होली और दशहरा में उभरकर सामने आया है।

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शन्ने बहुत क़िस्मत वाला था कि उसने दोनों परंपराओं का आनंद लिया था। एक, जिस परंपरा में उसके चचेरे भाई-बहन रह रहे थे और दूसरी वह परंपरा जिसमें वह एक आज़ाद पक्षी की तरह मस्तमौला घूमता है। यह बहु-सांस्कृतिकता हमारे चचेरे भाई-बहनों को बहुत ही आकर्षित करती है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारे कश्मीर का भी ज़िक्र होता रहा है। लेकिन हमें इस बात का यक़ीन था- ‘भारतीय धर्मनिरपेक्षता दुनिया की तीसरे नंबर की सबसे बड़ी मुसलिम आबादी की रक्षा करती है। कश्मीर समेत दूसरे मुद्दों को बहुत ही संजीदगी के साथ देखना चाहिए और हम जिस धर्मनिरपेक्ष परिवेश में रह रहे थे उसको कभी नहीं भूलना चाहिए।’ ओह, हम कितने भोले थे!

धर्मनिरपेक्षता की इमारत तो गिरनी ही थी क्योंकि यह नींव बहुत कमज़ोर थी और सालों से अदृश्य तरीक़े से कमज़ोर होती जा रही थी।

हालाँकि हमारी बहु-सांस्कृतिकता की इमारत इतनी विश्वसनीय थी कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता के बरक्स जनरल जिया उल हक को निज़ाम-ए-मुस्तफा प्रमोट करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अफ़ग़ानिस्तान के चरमपंथी मुजाहिदीनों के साथ जुड़ने के पीछे की एक भावना यह भी थी कि जिया उल हक दक्षिण एशिया के बहु-संस्कृतिवाद से पाकिस्तान को दूर करना चाहते थे। इस प्रयोग के माध्यम से पाकिस्तान पश्चिम एशिया की इसलामिक अस्मिता में अपनी मुक्ति का रास्ता ढूँढ रहा था।

यह वही वक़्त था जब भारत में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तालाब में बड़ा पत्थर फेंक दिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर जमी धूल को पोंछपाछ कर सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का एलान कर दिया। ज़ाहिर-सी बात थी कि यह सब कुछ अगड़ी जातियों के हिस्से को काटकर ही किया गया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह सामाजिक न्याय के मंच पर वोट बैंक की राजनीति कर रहे थे। 

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वीपी सिंह के इस क़दम पर तीखी प्रतिक्रिया होनी ही थी। अगड़ी जातियों की पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने इसका तगड़ा जवाब दिया। यह वही वक़्त था जब बीजेपी के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी रथ पर सवार होकर रामजन्म भूमि और बाबरी मसजिद विवाद में कूद पड़े। हिंदू और मुसलमान के बीच ध्रुवीकरण का रास्ता साफ़ हो गया। यह वही ध्रुवीकरण था जिसकी वजह से 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और 2014 में नरेंद्र मोदी। मोदी का मुसलिम विरोध पश्चिमी देशों में फैलते इसलामोफ़ोबिया के साथ कदमताल करने लगा। फ़रवरी 2002 में गुजरात नरसंहार अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के हवाई हमले के शोर में डूब गया। जिस कट्टर राजनीति ने मोदी को 2014 में कुर्सी पर बैठाया था उसी कट्टर राजनीति ने 2019 में और तगड़ा बहुमत दे दिया। लेकिन अभी भी एक उम्मीद की किरण बाक़ी है। मोदी की ऐतिहासिक जीत के बावजूद उनको सिर्फ़ 38 फ़ीसदी आबादी का ही वोट मिला है। हमें याद रखना चाहिए कि अयोध्या के आंदोलन में जो साम्प्रदायिकता का ज्वार उठा था उसने विश्वनाथ प्रताप सिंह के जातिवाद की धार को कुंद कर दिया था। लेकिन यह उभार अभी भी इतना दूर था कि हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में निर्णायक नहीं माना जाता। उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साम्प्रदायिकता के उन्माद को उस ऊँचाई तक ले जाना पड़ेगा जिसके आगे उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे सिर्फ़ ट्रेलर ही लगेंगे।
चारों तरफ़ बढ़ता हुआ अंधकार बहुत तकलीफदेह है। लेकिन हम सबको अपनी-अपनी आस्था को अपने-अपने तरीक़े से लेकर आगे बढ़ना होगा। अपने घरों में, अपने पड़ोस में और अपने देश में। क्या ऐसे वक़्त में अतीत की बात करना बेमानी है? दस साल की उम्र में मैंने कैफी आज़मी का वह गीत गाया था- मैं हिंदुस्तान में हूँ, नयी जन्नत बनाएँगे। भारत के पहले गणतंत्र दिवस पर रायबरेली में अपने चाचाजान के कॉलेज में मैंने यह गीत गाया था।
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