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पेगासस से लोकतंत्र को ख़तरा 

यह याद रहे कि अभी भी लोकतंत्र भारतीय समाज में बहुत पवित्र मूल्य नहीं बन पाया है, इसलिये सरकारों की स्वाभाविक इच्छा हो सकती है कि वे अपने विरोधियों की जासूसी कराएँ। ऐसे में पेगासस जैसे साफ़्टवेयर का निरंकुश प्रयोग सारी संस्थाओं, जिनमें स्वतंत्र न्यायपालिका या निर्भीक पत्रकारिता भी शरीक हैं, के लिये ख़तरा है। 
विभूति नारायण राय

मनुष्य की सबसे पुरानी गतिविधियों में शरीक जासूसी, एक ग्रीक पौराणिक चरित्र पेगासस के चलते हमारे विमर्श के केंद्र में आ गयी है। किसी ने नहीं सोचा था कि एक बार बोतल से बाहर आने के बाद जिन्न किन-किन के कंधों पर बैठेगा। यह तो पाखंड होगा कि कोई जासूसी की ज़रूरत या उसकी व्यापकता को सिरे से ही नकार दे लेकिन इस बार की ढिठाई कुछ इस तरह की थी कि अपने भी सकपकाये हुये हैं– न उगलते बन रहा न निगलते।

हमारी आज की दुनिया में जासूसी के दो तरीक़े सर्वाधिक लोकप्रिय हैं, पहले को ‘ह्यूम इंट’ या इंसानों के ज़रिये जासूसी और दूसरा ‘इलेक्ट इंट’ या संवाद को प्रेषित करने या प्राप्त करने के उपकरणों में सेंध लगाकर मतलब की सूचनायें हासिल करना है। यदि सरलीकृत भाषा में कहना हो तो पेगासस दूसरी श्रेणी में आयेगा पर यह इतना आसान भी नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण उन लोगों का चयन है जिन्हें जासूसी के लिए चुना गया था।

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यहाँ यह याद रखना होगा कि इज़राइली कम्पनी एनएसओ द्वारा विकसित साफ़्टवेयर पेगासस को वहाँ की सरकार ने ‘युद्ध के हथियार’ के रूप में घोषित कर रखा है। ‘युद्ध का हथियार’ घोषित उत्पाद की बिक्री सरकारी नियंत्रण में आ जाती है। भारतीय नागरिकों को यह समझना थोड़ा मुश्किल ज़रूर होगा क्योंकि हमारे यहाँ अभी तक ऐसी सामग्री सार्वजनिक क्षेत्र में ही निर्मित होती है लेकिन हाल में फ़्रांसीसी युद्धक जहाज़ राफ़ेल की ख़रीद से इसे समझा जा सकता है। राफ़ेल को एक निजी फ़्रेंच कम्पनी ने बनाया ज़रूर है लेकिन वह इसे किसी देश को बेचेगी तभी जब उसे अपनी सरकार की इजाज़त मिल जाए। एनएसओ के लिये भी ज़रूरी है कि वह पेगासस इज़राइली सरकार की अनुमति से किसी ऐसी सरकार को बेचे जिस का मनवाधिकारों का ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा रहा हो। इसे किसी ग़ैर सरकारी संगठन को नहीं बेचा जा सकता।

पेगासस अपनी श्रेणी में अब तक का सबसे घातक साफ़्टवेयर है। इसे किसी भी मोबाइल फोन, कम्प्यूटर या लैपटॉप में बिना उससे शारीरिक सम्पर्क किये डाला जा सकता है। यहाँ तक कि काफ़ी हद तक सुरक्षित समझे जाने वाली ऐपल की मशीनें भी इसके निशाने से नहीं बच सकतीं। केवल एक निर्दोष सा संदेश पढ़े जाते ही यह किसी भी उपकरण में ऐसे वायरस का प्रवेश करा देगा जो उस उपकरण की सारी गतिविधियों तक उसके हैंडलर की पहुँच मुमकिन कर देगा। 

यह वायरस उपकरण में उपलब्ध कैमरा, वायस रिकॉर्डर, मेल, भौगोलिक उपस्थिति या कोई भी दूसरा ऐप जिसे डाउनलोड किया गया होगा, अपने हैंडलर को सुलभ करा देगा।

इसमें यह भी सलाहियत है कि पकड़े जाने का ख़तरा होने पर या ग़लती से किसी दूसरे सिमकार्ड से सम्पर्क हो जाने पर यह ख़ुद को नष्ट भी कर सकता है। शायद उसकी इन्हीं क्षमताओं के कारण निर्माता कम्पनी पर रोक है कि वे इस उत्पाद को किसी ग़ैरसरकारी संगठन को नहीं बेचेंगे।

दुनिया की तो छोड़ें, ऐसा भी नहीं कि भारत में पहली बार अपने विरोधियों की जासूसी कोई सरकार करा रही थी। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार इस आरोप पर गिर गयी थी कि उनकी ख़ुफ़िया एजेंसी के लोग राजीव गांधी के घर की निगरानी कर रहे थे। सभी जानते हैं कि एक निश्चित प्रक्रिया के तहत सक्षम प्राधिकारी से अनुमति ले कर किसी के टेलिफ़ोन सुनना एक वैध कार्यवाही है, फिर क्या वजह है कि इस बार इतना शोर शराबा हो रहा है?

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परेशान करने वाले दो कारण हैं– एक तो यह साफ़्टवेयर सिर्फ़ सरकारों को बेचा जा सकता है और दूसरे शिकार हुये लोगों की जो सूची ऐमनेस्टी इंटरनेशनल ने जारी की है वह बड़ी विविधतापूर्ण है। इस सूची में राहुल गांधी या ममता बैनर्जी के क़रीबियों के नाम तो हैं ही, इसमें सत्ता पार्टी के एक वर्तमान और एक भावी मंत्री का नाम भी है। पत्रकारों और ऐक्टिविस्टों से होती हुई आपकी निगाहें एक नाम पर अटक जाती हैं जो सर्वोच्च न्यायालय के एक कनिष्ठ महिला कर्मी का है। न सिर्फ़ उसका बल्कि उसके पति समेत कई क़रीबी रिश्तेदारों के टेलीफोन नम्बर इस फ़ेहरिश्त में हैं। इस कर्मी ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न की एक शिकायत दर्ज कराई थी और इन्हीं मुख्य न्यायाधीश ने देश का भाग्य बदलने वाला एक फ़ैसला भी दिया था। फ़ोन की निगरानी और महिलाकर्मी की शिकायत का समय एक ही है, इसलिये स्वाभाविक रूप से कुछ गंभीर सवाल भी उठ रहे हैं।

वीडियो चर्चा में देखिए- पेगासस की जाँच से क्यों बच रही है मोदी सरकार?

नीतिगत कारणों से भारत में पेगासस किसी ग़ैर-सरकारी संस्था के पास नहीं हो सकता, इसलिये और ज़रूरी है कि सरकार साफ़ करे कि उसने यह साफ़्टवेयर ख़रीदा था या नहीं? मात्र इतना बयान देने मात्र से कि उसकी किसी एजेंसी ने फ़ोन जासूसी नहीं की है, काम नहीं चलेगा। वैसे भी यह मानवाधिकारों से जुड़ा मामला है और दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भारत का रिकॉर्ड पिछले कुछ सालों से ख़राब ही हुआ है।

एनएसओ ने विवाद बढ़ने के बाद अपनी सफ़ाई में जारी बयान में कहा है कि पेगासस के कारण करोड़ों लोग दुनिया में चैन से रातों की नींद ले पाते हैं। बात काफ़ी हद तक सही हो सकती है अगर इसका उपयोग माफ़िया या आतंकी गुटों के ख़िलाफ़ किया जाए। पहली बार इस साफ़्टवेयर का सफल इस्तेमाल मैक्सिको में ड्रग माफिया के ख़िलाफ़ किया गया और तभी दुनिया का ध्यान इसकी तरफ़ गया भी।

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हमारे देश में जहाँ आतंकवाद या संगठित अपराधों के सामने कई बार राज्य बौना लगने लगता है, इसका बड़ा प्रभावी इस्तेमाल हो सकता है। पर यह एक दुधारी तलवार की तरह है। यह याद रहे कि अभी भी लोकतंत्र भारतीय समाज में बहुत पवित्र मूल्य नहीं बन पाया है, इसलिये सरकारों की स्वाभाविक इच्छा हो सकती है कि वे अपने विरोधियों की जासूसी कराएं। ऐसे में पेगासस जैसे साफ़्टवेयर का निरंकुश प्रयोग सारी संस्थाओं, जिनमें स्वतंत्र न्यायपालिका या निर्भीक पत्रकारिता भी शरीक हैं, के लिये ख़तरा है। 

कोई शक नहीं कि देश में वैध फ़ोन टैपिंग के लिये एक निर्धारित क़ानूनी प्रक्रिया है लेकिन पेगासस जैसे साफ़्टवेयर तो बिना किसी मान्य क़ायदे-क़ानूनों के उपयोग में लाये जा सकते हैं। ये अपने पीछे कोई निशान नहीं छोड़ते, इसलिये बाद में दोषी का पता लगाना भी लगभग असंभव होता है। ख़तरा जितना बड़ा है उसमें गणतंत्र की सारी संस्थाओं को सर गड़ाकर एक साथ विचार करना होगा और इससे निपटने के लिये मिल कर रणनीति बनानी ही होगी तभी लोकतंत्र सुरक्षित रह सकेगा।

(हिंदुस्तान से साभार)

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