बीती सदी के उत्तर्रार्ध (1979) में जब मन्नू भंडारी का उपन्यास 'महाभोज' प्रकाशित हुआ था, तब न हिन्दी साहित्य में  दलित विमर्श की गहमागहमी थी और न ही उत्तर भारत में दलित राजनीति की केन्द्रीयता। तब तक दलितों के प्रेरणास्रोत के रूप में आम्बेडकर का आज सरीखा सर्वस्वीकार का भाव भी नहीं था। यह अकारण नहीं है कि 'महाभोज' के औपन्यासिक कथ्य में दलित शोषण का वृतांत होने के बावजूद गांधी, नेहरू का उल्लेख तो है, लेकिन आम्बेडकर अनुपस्थित हैं। दरअसल  ‘महाभोज’ लिखे जाने की प्रेरणा के मूल में मुख्य धारा की वर्चस्वशाली राजनीति और सत्तातंत्र  की पतनगाथा मुख्य कारक  थी।