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बंगाल चुनाव में ‘जय श्री राम’, चंडीपाठ पर चुप्पी भी सांप्रदायिकता

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दूसरी बार चुनावी मंच से चंडीपाठ किया है। बीजेपी की ओर से लगातार चुनावी रैलियों में ‘जय श्री राम’ के धार्मिक उद्घोष का राजनीतिक नारे के तौर पर इस्तेमाल हो रहा है। हिन्दुत्व की बात भी खुलेआम की जाती रही है। मगर, आम दिनों में धर्म के आधार पर राजनीति और चुनाव आचार संहिता के लागू रहते राजनीति में धार्मिक आचरण और धार्मिक प्रतीक चिन्हों, शब्दों, मंत्रों आदि का प्रयोग बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं और अलग-अलग क़िस्म की परिस्थितियों को बयाँ करते हैं। यह प्रचलन स्पष्ट रूप से धर्म का राजनीति में इस्तेमाल है, धर्म के आधार पर वोट मांगा जाना है जिसे रोकने के लिए चुनाव आयोग को तुरंत क़दम उठाने चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2017 में धर्म, जाति, नस्ल, संप्रदाय के आधार पर वोट मांगने को ‘भ्रष्ट आचरण’ क़रार दिया था। मगर, यह भ्रष्ट आचरण शिष्ट बन कर पुष्पित-पल्लवित हो रहा है। लोकतंत्र को विषाक्त बनाते इस आचरण को रोकने की ज़िम्मेदारी जिस चुनाव आयोग पर है वह खामोश है।

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2019 के लोकसभा चुनाव में भी ऐसे कई वाकये हुए थे जब धर्म के आधार पर वोट मांगे गये, लेकिन आयोग चुप बैठा रहा। बिहार के बेगूसराय में सीपीआई के कन्हैया कुमार और बीजेपी के फायरब्रांड नेता गिरिराज सिंह आमने-सामने थे। खुलकर गिरिराज समर्थकों ने गिरिराज सिंह की तसवीर के साथ यह नारा लगाया था- ‘देखो, देखो हिन्दुओं का शेर आया’। एक व्यक्ति को हिन्दुत्व (यहाँ धर्म के अर्थ में) का प्रतीक बनाकर पेश किया गया। चुनाव आयोग खामोश रहा।

कठघरे में कांग्रेस और लेफ्ट भी

चाहे बीजेपी की ओर से ‘जय श्री राम’ के उद्घोष का राजनीतिक उपयोग हो या फिर ममता बनर्जी का चुनावी मंच पर चंडीपाठ- इसका विरोध नहीं करना भी सांप्रदायिक सोच है। चाहे कांग्रेस हो या फिर वामपंथी या फिर चुनाव की प्रक्रिया में शामिल दूसरे राजनीतिक दल या निर्दलीय भी, सबका यह कर्तव्य बनता है कि चुनाव को धार्मिक आधार पर प्रभावित होने देने का विरोध करें। लेकिन, चुनाव आयोग के पास ऐसी शिकायतों का नहीं जाना यह बताता है कि विरोध करने पर भी धर्म विशेष के वोटों से वंचित होने का ख़तरा है। इस ख़तरे से बेपरवाह रहने की ज़रूरत से पीछे हटना भी सांप्रदायिकता है।

धार्मिक पक्षपात या धार्मिक असहिष्णुता ज़रूर सांप्रदायिकता का गुणधर्म है। मगर, परिस्थितिवश धार्मिक आधार पर नफा-नुक़सान सोचते हुए तटस्थ रहना भी सांप्रदायिकता है- इसे समझने और महसूस करने-कराने की आवश्यकता है।

पश्चिम बंगाल के चुनाव में बीजपी-टीएमसी खुलकर सांप्रदायिकता के रास्ते पर हैं, तो कांग्रेस-लेफ्ट छिपे हुए रूप में सांप्रदायिक आचरण दिखा रहे हैं। एक सक्रिय रहकर सांप्रदायिक है तो दूसरा इसी व्यवहार के साथ निष्क्रिय रहकर सक्रिय है।

क़ानून का सांप्रदायीकरण?

संतुलित करने की कोशिश से सांप्रदायिकता का ज़हर गहराता है। हिन्दू सांप्रदायिकता का जवाब इसलामिक सांप्रदायिकता या दूसरे धर्म की सांप्रदायिकता नहीं हो सकता। शरणार्थी और घुसपैठिए में फर्क का आधार जब धर्म होगा तो राजनीति और राजनीतिक फ़ैसले सांप्रदायिक हुए बगैर नहीं रह सकते।

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इसी आधार पर नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए को सांप्रदायिक क़ानून कहा जा सकता है क्योंकि इसमें पड़ोसी देशों के ‘मुसलमानों को छोड़कर’ किसी भी धर्म से संबद्ध लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है। यह बात अलग है कि क़ानून में कहीं भी ‘मुसलमानों को छोड़कर’ लिखा नहीं गया है।

घुसपैठिए और सीएए का ज़िक्र इसलिए करना ज़रूरी है क्योंकि चुनाव के समय ये दोनों विषय धर्म के आधार पर वोट मांगने के विषय स्वत: बन जाते हैं। 

असम में सीएए का मसला उठाने से बीजेपी को नुक़सान और उसके विरोधियों को फ़ायदा होता दिखता है इसलिए दोनों ही पक्ष सहूलियत के हिसाब से यह मसला चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद नहीं उठाना या उठाना चाहते हैं। दोनों सोच सांप्रदायिक है।

इसी तरह असम में चुनाव जब 6 अप्रैल को ख़त्म हो जाएँ उसके बाद पश्चिम बंगाल में सीएए का मसला बीजेपी को वोट दिलाने वाला होगा, जबकि अलग-अलग दलों के लिए अलग-अलग रूप में यह मसला वोटों के लिहाज से अनुकूल या प्रतिकूल ध्रुवीकरण करेगा। 

अपने-अपने नफे के हिसाब से राजनीतिक दल सीएए का मसला उठाएँगे या नहीं उठाना चाहेंगे, तो क्या उनके इन क़दमों को संकीर्ण सांप्रदायिक सोच से जोड़ा नहीं जाना चाहिए? क्या इस क़िस्म की सांप्रदायिकता से चुनाव को दूर रखने की ज़रूरत नहीं है? क्यों नहीं चुनाव आयोग को धर्म के आधार पर वोट मांगने पर रोक को सुनिश्चित करने के लिए नियमों का दायरा व्यापक करना चाहिए?

वीडियो चर्चा में देखिए, ममता बड़ी नेता या मोदी?

घोषणा-पत्रों में धार्मिक घोषणाएँ

चुनाव घोषणा-पत्र राजनीतिक दस्तावेज होता है जिस आधार पर वोट मांगे जाते हैं। लिहाज़ा इस घोषणा-पत्र में भी धर्म के आधार पर लुभाने जैसी घोषणाएँ चुनावी प्रक्रिया के तटस्थ स्वरूप को कलंकित करती हैं। राम मंदिर बनाने का संकल्प बीजेपी के चुनाव घोषणापत्र में लगातार लिए जाते रहे। कभी चुनाव आयोग ने इसे ‘धर्म के आधार पर वोट मांगने’ के तौर पर देखने की जहमत नहीं उठायी। अब यह ग़लती सुधारे जाने लायक नहीं रह गयी है मगर उल्लेख करने लायक हमेशा बनी रहेगी। इसका उल्लेख चुनाव आयोग को उसके कर्तव्य के प्रति समर्पण की याद दिलाने के लिए होगा।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती से जुड़े कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को तब नाराज़ होते पूरे देश ने देखा था जब इस सरकारी आयोजन में ‘जय श्री राम’ समेत कई और नारे लगे जो राजनीतिक कहे जा सकते हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसका प्रतिवाद करते हुए अपना भाषण अधूरा छोड़ दिया था। 

सवाल यह है कि जो मुख्यमंत्री सरकारी आयोजन में राजनीतिक नारे या फिर धार्मिक नारे के इस्तेमाल को लेकर इतना संजीदा हैं वही मुख्यमंत्री चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद चुनावी मंच से धार्मिक चंडीपाठ करने को लेकर संजीदा क्यों नहीं दिखलाई पड़ीं?

अगर आज ममता सही हैं तो 23 जनवरी को ग़लत थीं। अगर वह तब सही थीं तो आज भी सही कैसे हो सकती हैं?  

कांग्रेस और लेफ्ट को न 23 जनवरी को ममता बनर्जी का साथ देना सही लग रहा था और न आज ममता बनर्जी के आचरण का विरोध करना फायदेमंद लग रहा है। इसलिए दोनों समय पर दोनों राजनीतिक दल चुप रहे। यह चुप्पी भी सांप्रदायिक है। चुनाव आचार संहिता के लागू रहते इस चुप्पी का भी संज्ञान उस चिंता का फलक बढ़ाएगा जो धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से जुड़ी हुई है।

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प्रेम कुमार
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