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नफरत की राजनीति के पैरोकार।

मोनू मानेसरः खूंखार ‘गोरक्षा’ और विद्वेष की राजनीति

ऐसा लगता है, जैसे हम बार-बार एक ही ख़बर लिखने को अभिशप्त हैं। साल दर साल बुरी ख़बरें और बुरी होकर सामने आ जाती हैं। भरतपुर के दो लोगों जुनैद और नासिर की हत्या के मामले में जिस तरह के तथ्य सामने आ रहे हैं, वे बेहद तकलीफ़देह हैं और बताते हैं कि हमारी व्यवस्था किस तरह अपराधियों के साथ ही मिलकर काम करती है। बीते मंगलवार को जुनैद और नासिर अपनी बोलेरो से भरतपुर से निकले। बुधवार को लौटते समय उन्हें अगवा कर लिया गया। नूंह में इनकी जम कर पिटाई की गई और फिर पीटने वाले इन्हें लेकर थाने गए कि इनको गोतस्कर होने के आरोप में गिरफ़्तार किया जाए। ये मामला हरियाणा के फिरोज़पुर झिरका थाने का है। थाने वालों ने बुरी तरह लहूलुहान इन दो लोगों को देखकर कहा कि इन्हें वापस ले जाओ, इस हाल में इन्हें नहीं रखा जा सकता। कुछ देर बाद दोनों की मौत हो गई। इसके बाद शवों को ठिकाने लगाने के लिए इन्हें भिवानी ले जाकर इनकी गाड़ी सहित जला दिया गया। गाड़ी के चेसिस नंबर से पहले गाड़ी की और फिर इन दोनों की पहचान हो पाई। 

यहां पर कुछ देर रुकने और विचार करने की ज़रूरत है। फ़िरोज़पुर झिरका थाने के पुलिसकर्मियों को क्या करना चाहिए था? क़ानून का तकाज़ा यह है कि पहले वे इन पिटे हुए दो लोगों को लाने वालों को गिरफ़्तार करते- कि ये गोतस्कर हों या कुछ और- इन्हें इस बुरी तरह मारने का हक़ तुम्हें किसने दिया? वे पीड़ितों को अस्पताल पहुंचाने की व्यवस्था करते। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने बस सबको निकल जाने दिया। क्या पुलिस तंत्र को ऐसे काम करना चाहिए? इन अपराधियों को यह हौसला कैसे मिला कि वे ख़ुद थाने पहुंच कर इन लगभग मरे हुए लोगों के ख़िलाफ़ एफआइआर दर्ज करने को कहने लगें? 

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इन सवालों के जवाब अब सामने आ रही नई जानकारियों में हैं। हरियाणा पुलिस का रिकॉर्ड बताता है कि जुनैद और नासिर की हत्या और उनके शव को जला डालने के आरोपियों का दरअसल हरियाणा पुलिस से पुराना मेलजोल रहा है। वे गोरक्षक की भूमिका में पुलिस के लिए ‘गुप्तचर’ का काम करते रहे हैं और तथाकथित गोतस्करों के ख़िलाफ़ केस दर्ज करवाते रहे हैं। वे पुलिस के अपने आदमी हैं जिनसे इस बार यह दुर्घटना हुई कि उनकी पिटाई की वजह से दो लोगों की मौत हो गई। वरना इस बार भी वे मुखबिर बने रहते और गोरक्षा के काम में लगे रहते।

सवाल है, ये कौन लोग हैं? पुलिस इन पर इतनी मेहरबान क्यों है? जुनैद और नासिर के परिवार ने जिन पांच लोगों के नाम दिए हैं, उनमें सबसे प्रमुख मोनू मानेसर है जो बजरंग दल ज़िला प्रमुख है। उसे मीडिया में हरियाणा में गोरक्षा की मुहिम का चेहरा बताया जा रहा है। यह भी बात सामने आ रही है कि वह हरियाणा सरकार के गोरक्षा कार्यबल में भी रह चुका है।


मोनू मानेसर फिलहाल फ़रार है। संभव है, कुछ दिन में उसकी गिरफ़्तारी हो जाए, क्योंकि मामला अब इतना सुर्खियों में आ चुका है कि फिलहाल उसे बचाना संभव नहीं है। लेकिन कहना मुश्किल है, उसके ख़िलाफ़ क्या मामला बनेगा। अभी ही यह बात सामने आ रही है कि वह अपहरण में शामिल नहीं था, अपहर्ताओं की मदद भर कर रहा था। 

मगर सवाल नासिर-जुनैद की हत्या और इसके आरोपियों का नहीं है। यह उस परेशान करने वाली प्रवृत्ति का है जो पिछले कुछ वर्षों में मज़बूत हुई है और जिसे सरकारी संरक्षण हासिल है। गोसेवा या गोरक्षा के नाम पर एक अराजक भीड़ को संगठित और प्रोत्साहित किया जा रहा है कि वह गायों की तस्करी पर नज़र रखे, गाय ले जाने वाली गाड़ियों को रोकने के लिए बैरिकेड बनाए, खुद ऐसे लोगों को पकड़े और फिर उन्हें पुलिस के हवाले करे। 

पुलिस इन गोरक्षकों को सम्मानित करती भी पाई जाती है। इन सबके बीच यह बात गुम हो जाती है कि गोतस्करी रोकने के नाम पर किन लोगों को किस-किस तरह प्रताड़ित किया जा रहा है। जब कोई नासिर या जुनैद मारा जाता है और मीडिया में ख़बर उछलती है तो फिर जांच शुरू हो जाती है।


अब इस बात को दुहराने का फ़ायदा भी नहीं लगता कि ऐसे गोरक्षकों की वास्तविक चिंता गायों की रक्षा नहीं, कुछ और है। वरना हमारी गोशालाओं की जो स्थिति है, सड़क पर भटकती गायों की जो हालत है, वह ऐसी न होती। उनके लिए बेहतर व्यवस्था होती, गोसेवक इतने आक्रामक और हिंसक न होते, वे शायद विनम्र और मेहनती होते। 

लेकिन दरअसल गोरक्षा के नाम पर यह अतिसक्रियता उस बड़े एजेंडे और प्रचार का ही हिस्सा है जिसे इस देश में अल्पसंख्यकों को एक ख़ास रंग में रंगते हुए अंजाम दिया जा रहा है। यह बहुसंख्यकवाद की विद्वेषपूर्ण राजनीति का ही एक पहलू है जिसका संदेश साफ़ है कि यह देश बस बहुसंख्यक हिंदुओं का है, बाक़ी समुदाय यहां रह सकते हैं लेकिन हिंदुत्ववादी राजनीति द्वारा तय पैमानों पर खरा उतरते हुए- उनकी नज़र में ‘अच्छा अल्पसंख्यक’ बनकर जीते हुए। वे नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन नहीं कर सकते, वे राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को ग़लत नहीं बता सकते, वे तीन तलाक़ में क़ानूनी दख़ल का विरोध नहीं कर सकते, वे गोवंश की खरीद-बिक्री नहीं कर सकते, वे कश्मीर के हालात पर कुछ नहीं बोल सकते, वे सरकार और प्रधानमंत्री के विरोध में कुछ कह नहीं सकते। ऐसा करने पर कहीं उन्हें दंगाइयों की तरह जेल में डाला जा सकता है, कहीं पीट-पीट कर मारा जा सकता है। और यह सब करते हुए हम अपनी उदारता और क़ानून-व्यवस्था दोनों की पीठ थपथपा सकते हैं। 

नब्बे के दशक में जब ओडिशा में बजरंग दल के एक नेता दारा सिंह ने एक जीप में एक पादरी ग्राहम स्टेन्स को उसके बच्चों सहित जला दिया था तो इससे एक राष्ट्रीय हूक पैदा हुई थी। सबने इस कृत्य की निंदा की। सबकी आंखें कुछ शर्म, कुछ पछतावे और कुछ अफ़सोस से झुकी रहीं। लेकिन अब हमारे सार्वजनिक जीवन में वह अफ़सोस भी जैसे बाक़ी नहीं है। हम हत्यारों के समर्थन में समारोह कर सकते हैं, उन्हें माला पहना सकते हैं, जांच होने तक उनकी बेगुनाही की दलील वाले बयान जारी कर सकते हैं और कह सकते हैं कि भारत जैसे विशाल देश में ऐसी छिटपुट घटनाएं होती हैं, इससे देश को बदनाम नहीं किया जा सकता।
यह बदला हुआ हिंदुस्तान है जिसे रोज़ उसका मीडिया कुछ और बदल रहा है। शायद हम धीरे-धीरे चीज़ों को बहुत दूर से और बहुत सामान्यीकृत लेंस से देखने के आदी हो गए हैं। पास आकर देखें तो त्रासदी का असली चेहरा दिखता है। जुनैद और नासिर 25 और 35 बरस के थे। एक पूरी उम्र उनके सामने थी। एक पूरा परिवार उनके साथ था। वे इस देश के नागरिक थे और नागरिकों वाले सारे हक़ उन्हें हासिल होने चाहिए थे। लेकिन यह शायद उनकी अल्पसंख्यक पहचान थी जो इन बरसों में संदिग्ध बना दी गई है, जो उनके पकड़े और पीटे और न बचाए जाने की वजह बनी। 
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गोरक्षकों और पुलिस और सरकार के संरक्षण में बनी एक व्यवस्था ने न जीते-जी इनकी नागरिकता का सम्मान किया और न मरने के बाद वह उनका इंसाफ़ उन्हें देने को तैयार है। लेकिन ऐसा करके हम बस किसी एक समुदाय को नहीं, उस पूरे देश को कमज़ोर करते हैं जिसकी देशभक्ति की क़समें खाने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगाते। ऐसी घटनाएं हिंदुस्तान को शर्मिंदा करती हैं- और यह शर्म इस बात से कुछ और गहरी होती जाती है कि हम इन लोगों के हिस्से का इंसाफ़ भी सुनिश्चित नहीं कर पा रहे।  
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प्रियदर्शन
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