केशवानंद भारती मामले (1973) में निर्णय लेने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ बैठी। इसमें 13 न्यायाधीश शामिल थे। इस पीठ ने भारत के संविधान की व्याख्या करते हुए संविधान के ‘मूल ढांचे’ का सिद्धांत सामने रखा जो आने वाले भारत को राह दिखाने वाला था। यह निर्णय स्वाधीनता आंदोलन से उपजे मूल्यों को संरक्षित कर भारत की आने वाली पीढ़ी के अधिकारों और सरकारी उद्दंडता के बीच दीवार बनकर रहने वाला था। एक संतुलन बनाया गया ताकि सरकारें संविधान की रूह को छेड़े बिना देश चलाने का काम जारी रख सकें। इस निर्णय में इससे पूर्व आए गोलकनाथ निर्णय (1967) को उलट दिया गया, जिसमें संसद की, संविधान संशोधन अधिकारों को विनियमित किया गया था।