केशवानंद भारती मामले (1973) में निर्णय लेने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ बैठी। इसमें 13 न्यायाधीश शामिल थे। इस पीठ ने भारत के संविधान की व्याख्या करते हुए संविधान के ‘मूल ढांचे’ का सिद्धांत सामने रखा जो आने वाले भारत को राह दिखाने वाला था। यह निर्णय स्वाधीनता आंदोलन से उपजे मूल्यों को संरक्षित कर भारत की आने वाली पीढ़ी के अधिकारों और सरकारी उद्दंडता के बीच दीवार बनकर रहने वाला था। एक संतुलन बनाया गया ताकि सरकारें संविधान की रूह को छेड़े बिना देश चलाने का काम जारी रख सकें। इस निर्णय में इससे पूर्व आए गोलकनाथ निर्णय (1967) को उलट दिया गया, जिसमें संसद की, संविधान संशोधन अधिकारों को विनियमित किया गया था।
केशवानन्द मामले ने गोलकनाथ मामले के प्रत्यक्ष विनियमन को हटाकर एक अप्रत्यक्ष किन्तु अत्यधिक ठोस विनियमन किया। इसके तहत एक ‘मूल ढांचे’ की संकल्पना को विकसित किया गया। अब सरकारें संविधान के हर अनुच्छेद में संशोधन कर सकती हैं (अनुच्छेद-368) लेकिन इन संशोधनों से संविधान के ‘मूल ढांचे’ के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती हैं।
अर्थात संविधान में कोई भी ‘तात्विक परिवर्तन’ करना अब संभव नहीं है, कम से कम संसदीय तरीक़े से तो बिल्कुल नहीं।
थोड़ा आगे बढ़कर सोचें तो यह सामने आएगा कि ‘मूल ढांचा’ कोई एलियन विचार नहीं है बल्कि यह अस्तित्व का प्रश्न है। मूल ढांचा जैसे हमारा कंकाल तंत्र (स्केलटन सिस्टम) अर्थात वो फ्रेम जिसमें हमारा शरीर खड़ा है, जहां विभिन्न अंगों के लिए पर्याप्त स्थान है, ताकि इसे एक रूप दिया जा सके और इस शरीर में जीवन रह सके।
मानवीय तथा वैश्विक संस्थाओं का अस्तित्व इस मूल ढांचे में ही समाहित है। हर संस्था चाहे वह पारिवारिक या सामाजिक हो अथवा संवैधानिक; उसका एक मूल ढांचा होता है। परिवार से लेकर संसद, सर्वोच्च न्यायालय तक सभी संस्थाएँ बिना मूल ढांचे का पालन किए ढह जाएँगी। यहाँ तक कि यूनेस्को और भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण यानी एएसआई जैसी संस्थाएँ भी किसी ऐतिहासिक ढांचे को संरक्षित करते हुए मूल ढांचे का ध्यान ज़रूर रखती हैं क्योंकि एक बार किसी ऐतिहासिक इमारत अथवा घटना का मूल ढांचा परिवर्तित हो जाए तो उससे उसकी ऐतिहासिकता स्वतः समाप्त हो जाती है। सैकड़ों वर्षों का ऐतिहासिक अंतराल पल भर में नष्ट हो जाता है।
दुनिया में कुछ ऐतिहासिक ढाँचे ऐसे हैं जिनमें मूल ढांचा दृश्यात्मक न होकर भावनात्मक और घटनाओं से जुड़ा होता है। जिसमें इमारत मूल नहीं होती बल्कि घटना मूल होती है और हर वो चीज जो उस घटना की याद जरा सी भी धूमिल करे, न सिर्फ़ एक ‘नॉइज़’ और विकार है बल्कि ऐतिहासिक बलिदान के नज़रिए से एक अपराध भी है।
भारत की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार ‘मूल ढांचे’ की संकल्पना को लेकर अपनी समझ के निचले दायरे में गद्दी जमाकर बैठ गयी है। जब सरकार ने जलियाँवाला बाग के पुनरुद्धार का निर्णय लिया तो इसमें कोई बुराई नहीं थी। ऐतिहासिक इमारतों का पुनरुद्धार कोई नई बात नहीं है।
वैश्विक स्तर पर यूनेस्को और भारत में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग देश दुनिया के तमाम संरचनाओं का पुनरुद्धार वैज्ञानिक तरीक़ों से करती हैं। परंतु सरकार जलियाँवाला बाग जोक़ि ऐतिहासिक जलियाँवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) का ऐतिहासिक स्थल है। जहाँ हज़ारों भारतीयों, जिसमें बूढ़े बच्चे महिलाएँ सभी शामिल थे, को ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के वास्तविक प्रतीक जनरल डायर ने चारों ओर से घेर कर गोलियों से भून डाला था। जिस पार्क में यह घटना घटी उसमें घटना की याद में स्मारक बना दिया गया।
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दुनिया का निम्नतम विवेक भी इस ऐतिहासिक स्मारक का मूल ढांचा आसानी से खोज सकता है। इस स्मारक का मूल ढांचा है ‘दर्द’! जिसे इतिहास पढ़ने में समस्या हो, जिसे इस स्मारक के दर्द तत्व को समझने में परेशानी महसूस हो, वो हाल में आई शूजित सरकार की फ़िल्म ‘सरदार उधम सिंह’ देख सकता है। 45 मिनट तक निर्देशक इस घटना और इसके बाद की भयावहता दिखाता है (वास्तविकता इससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक रही होगी), आपकी रूह कांप जाएगी, दर्द से मानसिक अवस्था कई दिनों तक अच्छी नहीं रहेगी, लेकिन हमारे इस दर्द को ऐसे ही महसूस करना उन स्वतंत्रता सेनानियों के लिए हमारा सम्मान है।
यह ‘दर्द’ इस स्मारक का तात्विक भाव है जो हमें सुकून देगा, वीरता और साहस की याद दिलाएगा, तकलीफ़ को महसूस करने में मदद करेगा, और उन लोगों का सम्मान बनाए रखने में मदद करेगा जिन्होंने इस देश की अस्मिता के लिए अपनी जान दे दी। हम जैसे ही इस स्मारक में चमचमाती लाइट्स लगाते हैं अलग-अलग रंग से इसे सजाते हैं और जिस सीमा तक इस दर्द को कम करने की कोशिश करते हैं उस सीमा तक, एक तो हम उन शहीदों के प्रति अपनी कृतघ्नता का परिचय देते हैं और दूसरा ‘दर्द’ के उस मूल ढांचे को तोड़ते हैं। मेरी नज़र में यह ‘हिस्टॉरिकल अल्ट्रा वायरस’ की श्रेणी में आएगा।
वर्तमान सरकार का अगला चुनाव साबरमती आश्रम है। कुछ ऐतिहासिक ढांचों में किसी व्यक्ति विशेष का चरित्र ही मूल ढांचे का रूप ले लेता है। साबरमती का यह आश्रम ऐसा ही एक ऐतिहासिक ढांचा है। अहमदाबाद स्थित यह आश्रम महात्मा गांधी का निवास स्थान था जहाँ उन्होंने अपने सिद्धांतों को जिया, अपने सिद्धांतों की साँस ली। इस आश्रम के पुनरुद्धार के लिए सरकार ने 12 सौ करोड़ रुपए की राशि आवंटित की है। इस स्थान को भी पर्यटकों के लिए बदला जाना है। गांधी के इस आश्रम का मूल ढांचा उनके चरित्र का प्रतिबिम्ब है। एक धोती और लाठी के साथ पूरी ज़िंदगी चलने वाले गांधी के इस आश्रम का मूल ढांचा है ‘सादगी’! हम जैसे ही इसकी सादगी में परिवर्तन करेंगे आश्रम के मूल ढांचे में परिवर्तन हो जाएगा। तब यह आश्रम उतना ही गांधी का रहेगा जितना मूल अधिकारों के हट जाने के बाद संविधान, हमारा रहता।
एक आदमी जिसके पास पैतृक धन संपत्ति की कोई कमी नहीं थी फिर भी जिसने अपनी पूरी जिंदगी उन दो कपड़ों में गुजार दी उस पर खर्च होने वाले 12 सौ करोड़ रुपए उसके सिद्धांतों को जमीन में दफ़न करने का एक प्रयास है। गांधी जैसी महान विभूतियों के सिद्धांतों की हत्या उनके शरीर की हत्या से भी अधिक जघन्य पाप है।
जलियाँवाला बाग और गांधी आश्रम कोई एफ़िल टावर नहीं है, न ही यह बैबॉलान का झूलता हुआ बग़ीचा है। ये दोनों हमारी आज़ादी की लड़ाई के विरासत स्थल हैं। हमारे देशवासियों की शहादत और विचार मंच हैं। ये दर्द और शोषण को बार-बार याद करने की इमारतें हैं। ये उनके लिए बहुत ज़रूरी हैं जिन्हें अपने इतिहास पर गर्व है। जिन्हें इतिहास से कुछ सीखना है जिन्हें उन्हें याद रखना है जिन्होंने हमें हमारा आज दिया। पर क्या हम उनसे उनका कल भी छीन लेना चाहते हैं?
जिस महात्मा गांधी के नाम पर सरकार 12 सौ करोड़ ख़र्च करने के लिए तत्पर है उन्हीं महात्मा गांधी के नाम पर चल रही मनरेगा योजना का कोष इस समय नकारात्मक अवस्था में है। मनरेगा योजना को लेकर सरकार का अपना वित्तीय विवरण 8,686 करोड़ रुपये का नेट नेगटिव फंड दिखा रहा है। इसका मतलब इस बचे वित्तीय वर्ष में सरकार के पास अपने वैधानिक कर्तव्य को भी पूरा करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है (हालाँकि सरकार बाद में अपने ही विवरण से पलट गई)।
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गांधी को जीवित रखने के लिए उनके भव्य स्मारक और अंतरराष्ट्रीय सुविधाओं से परिपूर्ण कॉम्प्लेक्स नहीं चाहिए। आज पूरी दुनिया के विभिन्न चिंतकों और नेताओं के द्वारा जब गांधी का नाम लिया जाता है तो उसमें किसी स्मारक की चर्चा नहीं होती, चोरी और अपराध को ग्लोरिफाई करता नेटफ्लिक्स का एक शो ‘मनी हीस्ट’ में गांधी की चर्चा उनके सिद्धांतों और ‘कथनी करनी’ अर्थात साधन की पवित्रता को लेकर होती है।
डेंजल वाशिंगटन की फ़िल्म ‘द ग्रेट डिबेटर्स’ में भी गांधी की चर्चा किसी शानदार कॉम्प्लेक्स को लेकर नहीं है बल्कि उनकी सादगी और अहिंसा के कारणों से है। पूरी दुनिया का शायद ही कोई देश हो जहां महात्मा गांधी के नाम पर कोई सड़क न हो, शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां गांधी का स्टैचू न हो। जिन देशों और शहरों के नाम आपने सुने भी न होंगे वहाँ भी गांधी के स्टैचू हैं। ये सब इसलिए कि गांधी का मूल ढांचा सादगी और अहिंसा से बना था। जब मानवता हताश होती है तो ऐसे ही विचारों की ओर भागती है न कि किसी ग्रैंड बिल्डिंग और कॉम्प्लेक्स की ओर।
गांधी राह हैं कोई इमारत नहीं। अपनी हत्या के बाद गांधी जितना तेज चले उतना कभी अपने जीवनकाल में भी नहीं चल पाए। जिसे मृत्यु मार नहीं पाती उसे इतिहास स्वयं सँजोकर रखता है। गांधी वो शब्द हैं जो कभी नहीं मिट सकते, चाहे कोई इमारत हो या न हो।
इतिहास में सनक कोई नई बात नहीं है। सनक भी इतिहास बनाती है लेकिन ऐसी सनक और उसे धारण करने वालों को इतिहास में कैसे याद रखा जाता है यह हम आसानी से मध्यकालीन भारत के इतिहास की कक्षा 7 की एनसीईआरटी से सीख सकते हैं। सरकार को रुक जाना चाहिए इससे पहले कि उसकी सनक ऐतिहासिक हो जाये।
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