केशवानंद भारती मामले (1973) में निर्णय लेने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ बैठी। इसमें 13 न्यायाधीश शामिल थे। इस पीठ ने भारत के संविधान की व्याख्या करते हुए संविधान के ‘मूल ढांचे’ का सिद्धांत सामने रखा जो आने वाले भारत को राह दिखाने वाला था। यह निर्णय स्वाधीनता आंदोलन से उपजे मूल्यों को संरक्षित कर भारत की आने वाली पीढ़ी के अधिकारों और सरकारी उद्दंडता के बीच दीवार बनकर रहने वाला था। एक संतुलन बनाया गया ताकि सरकारें संविधान की रूह को छेड़े बिना देश चलाने का काम जारी रख सकें। इस निर्णय में इससे पूर्व आए गोलकनाथ निर्णय (1967) को उलट दिया गया, जिसमें संसद की, संविधान संशोधन अधिकारों को विनियमित किया गया था।
साबरमती आश्रम का अर्थ भी समझती है सरकार?
- विचार
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- 29 Mar, 2025

एक धोती और लाठी के साथ पूरी ज़िंदगी चलने वाले महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम के पनरुद्धार के लिए सरकार ने 1200 करोड़ रुपये क्यों आवंटित किए हैं? क्या इससे गांधी जी वाली सादगी बची रह जाएगी?
केशवानन्द मामले ने गोलकनाथ मामले के प्रत्यक्ष विनियमन को हटाकर एक अप्रत्यक्ष किन्तु अत्यधिक ठोस विनियमन किया। इसके तहत एक ‘मूल ढांचे’ की संकल्पना को विकसित किया गया। अब सरकारें संविधान के हर अनुच्छेद में संशोधन कर सकती हैं (अनुच्छेद-368) लेकिन इन संशोधनों से संविधान के ‘मूल ढांचे’ के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती हैं।
अर्थात संविधान में कोई भी ‘तात्विक परिवर्तन’ करना अब संभव नहीं है, कम से कम संसदीय तरीक़े से तो बिल्कुल नहीं।